हमें
नज़र नहीं आतीं
पेड़ों की अस्थियां
और उन पर रेंगते
समय की पीठ पर
हमारे कुचक्र।
हमें
नज़र नहीं आते
सूखे
पेड़ों के जिस्मों पर
कराहती कतरनें।
हमें
नज़र नहीं आती
उम्रदराज़ पेड़ों
की पिंडलियों की सूजन।
हमें नज़र नहीं आती
उनके
शरीर पर
अंकुरण का गर्भ होती
मिट्टी भरी छाल।
हमें नज़र
नहीं आता
वृक्ष और आदमी के बीच
अपंग होता रिश्ता।
ओह !
कितना कुछ
नहीं देखा
हमने अपने जीवन में..।
हमने देखे
केवल खिलती
कलियां
फूलों के रंग
उनकी खुशबू पर
बहकता भंवरा
आरी
कुल्हाड़ी
मकान
सड़क
सुविधाएं
अपने बरामदे
अपने
दालान
अपने बच्चे
अपना जीवन।
जंगल
को शहर बनाने
का सपना
और
भी बहुत कुछ...।
देखना
हमारी आवश्यकता नहीं
हमारी
होड़ है
अपने से
प्रकृति से
जंगल से...।
हम सब भाग रहे हैं
हमारे पीछे
शहर
फिर
हमारे कर्म
फिर
बेबस और बेसुध पीढ़ी...
काश
वो सब
देख लिया होता
कुछ ठहरकर...।
वाह!बिल्कुल सही कहा आपने।
ReplyDeleteआभार आपका शिवम जी...।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०८-०५ -२०२१) को 'एक शाम अकेली-सी'(चर्चा अंक-४०५९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आभार आपका अनीता जी...।
ReplyDeleteसुंदर कविता ये समय सच में विचार करने का है।
ReplyDeleteजी आभार आपका
Deleteप्रकृति को अपने शब्दों में बहुत खूबसूरती से पिरोया संदीप जी..वाह
ReplyDeleteवाकई आदमी की आँख वही सब देखती है जिसमें उसका लाभ छिपा होता है पर वह एक दिन उसके खुद के लिए ही बोझ बन जाता है
ReplyDeleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteहमने पहले कहीं पढ़ा था कि पेड़ों को भी दर्द होता है जब उनकी टहनियां काटते हैं या पत्ते और फूल तोड़ते हैं ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ...
पेड़-पौधे, पालतू जानवर परिवार के सदस्य हुआ करते थे. जब से वो पीछे छूटे, परिवार भी टूटे और बिछड़ गए. टोकने के लिए, अहसास दिलाने के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteयह रचना शब्दों की जाल नहीं, सच का हाल है जो अब जा कर दिखा है...जब स्थिति हद से ज़्यादा बुरी हो गई।
ReplyDeleteआपने बहुत बढ़िया लिखा है....मैं मानता हूं आप इसके माध्यम से सबको अपने विचारों पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य करेंगे। शुभकामना इतनी मार्मिक रचना लिखने के लिए।