आईये सुबह बुनते हैं
वह सुबह
जिसका इंतजार
सभी को है
वह
सुबह जिसमें
दादाजी बगीचे में
हमउम्र साथियों के साथ
ठहाके लगाकर
लौटें
और
घर पहुंचकर खूब किस्से सुनाएं
अपने उम्र से थककर जीते
साथियों के।
वह सुबह
जब पिता बेखोफ होकर
अखबार हाथों में लेकर
सोफे पर
बैठकर
बतियाएं
और
बीच में
चाय के देरी पर
कई बार शोर मचाएं।
वह सुबह
जब बच्चे दोबारा
स्कूल जाने को
हो जाएं तैयार
और
बस वाला
हमेशा की तरह
घर के बाहर
हार्न बजाए।
वह सुबह
जब पूजा के लिए
फूल लेने
दादी
अलसुबह ही
बगीचे चली जाएं।
वह सुबह
जब थक चुकी मां
के चेहरे पर
परिवार को मुस्कुराता देख
झूमने लगे घर।
वह सुबह
जब रसोई खिलखिलाए
दालान
मुस्कुराए।
अखबार वाले के चेहरे पर
दोगुनी फुर्ती
दूध वाले के चेहरे पर
सयानी सी हंसी
प्रेस वाले के चेहरे पर
उम्मीद के सुकड़न
के बाद
सपाट सी मुस्कुराहट नजर आए।
वह सुबह
जब सोशल मीडिया
दुख को भूल जाए
केवल
खुशियों वाली ही सूचनाएं लाए।
वह सुबह
जब बाजू वाले शर्मा जी
बिजली के
बिल पर
चीखने की बजाए
मूंछों पर ताव देकर
हंसते नजर आएं।
वह सुबह
जब
इन बोझिल दिनों की
याद न सताए।
वह सुबह
जब अपनों का कांधा हो
अपनों का साथ हो
अपनों का हाथ हो
अपनों की बात हो
अपनों से
गले लगने की आजादी हो।
वह सुबह
जब हम भी
अपनी धरती पर
पहले की भांति
खूब उडें़
पंछी बनकर।
वह सुबह
जब पक्षियों का कोई झुंड
हमारी छत पर
डाले बसेरा
बतियाए
और
धैर्य बंधाए।
वह सुबह
जो पानीदार हो
हवादार हो।
वह सुबह
जिसमें
न कोई मास्क
न कोई दवा
न कोई दूरी
न ही
घर में दुबकने की मजबूरी।
बस धैर्य रखिये
सुबह आने को है।
ये मानिये
कि
जब
रात अधिक स्याह हो
तब
सुबह
की दमक
हमारे लिए होती है।
उम्मीद तो यही करते हैं संदीप जी कि इस सियाह रात के आगे सुबह ही है और कम-से-कम कोशिश तो करनी ही चाहिए उस सुबह को बुनने की। इस मातम के माहौल में हौसला-अफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया आपका।
ReplyDeleteजी थक गए हैं हम सभी दर्द देती खबरों को सुनकर। ये आकर्षण का नियम हैं और इसीलिए ये कविता भी लिखी गई। आभार आपका जितेंद्र जी।
Deleteवाह, भाई संदीप जी मैं वह पंक्तियाँ ढूँढने के लिए कई बार कविता पढ़ते पढ़ते ठिठकी,जिन्हें यहाँ उद्घृत कर सकूँ,पर मन कहीं न ठहरा,पूरी रचना जीवन की निरंतरता को साधे कल कल करती नदी की तरह बह गई। और मै आपकी इस रचना को पढ़कर भावविभोर हो गई,कि सच में हमारे जीवन में इतने सुंदर रंग हैं,और आज हम जिनसे विमुख हैं,सुंदर रचना के लिए आपको बधाई।
ReplyDeleteजी आभार आपका जिज्ञासा जी...। सच में हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारा देश, हमारी संस्कृति और हमारे जिंदगी जीने के तौर तरीके बहुत खूबसूरत से हैं, जो हैं वो मौलिक हैं उसमें कोई मिलावट नहीं है, एक घर साथ हंसता है, साथ रोता है और साथ उदास होकर साथ जीतना जानता है।
Deleteवाह।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया👌
बहुत आभार आपका शिवम जी।
Deleteआपने आह्वान तो किया सुबह बुनने का ....लेकिन सच कहूँ तो नहीं बुन पाएंगे ....
ReplyDeleteलेकिन थोड़ी सी उम्मीद जगाती सी रचना ... मन व्यथित है ...