अचानक क्यों
लगा
कि हम
जमीन पर भी
चल नहीं पा रहे
अपने पैरों।
हमें चंद्रमा अब
नजर आने लगा है
घर की रोटी में।
चूल्हे की
अधिक सिकी रोटी
आधी जली हुई
चंद्रमा जैसी
होती है।
झोपड़ी के बाहर
खाट पर लेटे बच्चे
उस रोटी से
ढांक रहे हैं
चंद्रमा को।
वे नहीं जानते
उन्होंने
एक सदी के झूठ को
ढांक दिया है
रोटी से।
भूखे दौर में
कोई बच्चा
अब
नहीं मांग रहा चंद्रमा
क्योंकि
वे रोटी मांग रहे हैं।
हमें रोटी चाहिए
तब
चंद्रमा पर पहुंचने की कोई
सीढ़ी
का सपना
किसी किताब में
अच्छा लगेगा।
पहले
अमावस हो चुके दिनों में
स्याह
होते हालातों
और
बेगैरत रिश्तों के बीच
आप
एक
सभ्य समाज
की कोई
गोल रोटी बेलियेगा।
भूखे और परेशान लोग
रोटी को
चंद्रमा कहेंगे।
ये दौर
अंगीठी है
आदमी
तप रहा है
सुर्ख है
उसे
छूने वाली
और
खाने वाली
रोटी दे दीजिए
क्योंकि
वे
अब भूखे
और
अंतड़ियों से चिपटे पेटों
रोटी को
ख्वाब में
नहीं
पचा पाएंगे।
कीजिए कुछ
जिससे
तपती हुई
इस मानसिकता पर
और फफोले न आने पाएं
क्योंकि
ये छाले
समय के चेहरे पर हैं
और
समय के चेहरा
बेदाग ही अच्छा लगता है।
समय की किताब में
हरेक का चेहरा
स्पष्ट उभरता है
तुम्हारा भी
उनका भी
जो
चेहरा खो चुके हैं
उनका भी
जो
परेशान हैं, भूखे हैं।
बेचेहरा
समाज को गढ़ना
भले ही तुम्हारी भूल है
लेकिन
ये तुम्हें सदियों परास्त करेगी।
वे नहीं जानते
ReplyDeleteउन्होंने
एक सदी के झूठ को
ढांक दिया है
रोटी से।
अब सपनों से नही बदलते , हकीकत से रु ब रु हो गए हैं ।
विचारणीय रचना ।
आभार आपका संगीता जी।
Deleteबदलते / बहलते पढ़ें
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (5 -5-21) को "शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर "(चर्चा अंक 4057) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
आभार आपका कामिनी जी...।
ReplyDeleteठीक कहा संदीप जी आपने।
ReplyDeleteआभार आपका जितेंद्र जी
Deleteसटीक ! आत्मा को झकझोर थी पंक्तियां।
ReplyDeleteअभिनव सृजन।
आभार आपका
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteआभार आपका मनीषा जी
Deleteसमय की किताब में हर एक का चेहरा स्पष्ट उभरता है!
ReplyDeleteसत प्रतिशत सत्य!
आभार आपका मनीषा जी
Deleteचिंतन योग्य सृजन ।
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