मैं सूखा कहता हूँ
तुम रिश्तों का
जंगल दिखाते हो।
मैं दरकन कहता हूँ
तुम टांकने के
हुनर पर
आ बैठते हो।
मैं जमीन कहता हूँ
तुम अपना कद
बताते हो।
मैं आंसुओं के
नमक पर कुछ कहता हूँ
तुम मानवीयता का
देने लगते हो हलफनामा।
मैं प्यास कहता हूँ
तुम
सदियों पुरानी जीभ
फिराते हो
नागैरत होंठों पर।
मैं जंगल कहता हूँ
तुम चतुर
इंसान हो जाते हो।
बस
अब मैं कुछ नहीं कहूँगा
केवल देखूंगा
तुम्हारी पीठ पर
इच्छाओं का पनपता
कंटीला जंगल...।
जी आभार आपका आदरणीय रवींद्र जी।
ReplyDeleteवाह,सच्चाई बयां करती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteजी आभार आपका
Deleteअब मैं कुछ नहीं कहूँगा
ReplyDeleteकेवल देखूंगा
तुम्हारी पीठ पर
इच्छाओं का पनपता
कंटीला जंगल...।
गहन भावाभिव्यक्ति संदीप शर्मा जी!
जी आभार आपका
Deleteइच्छाओं का कोई अंत नहीं और वही तो भरमाती आयी हैं मानव को सुख-सुविधाओं के नाम पर
ReplyDeleteजी आभार आपका
Deleteअच्छी और उत्कृष्ट रचना।
ReplyDeleteजी आभार आपका
Deleteसंवेदनशील व्यक्ति को अंततः तथाकथित व्यावहारिक व्यक्तियों से यही कहना पड़ता है संदीप जी कि अब मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि उसकी बात न सुनी जा रही है, न सुनी जाएगी। निहित स्वार्थ कानों पर पट्टी जो बांध देते हैं।
ReplyDeleteजी आभार आपका
ReplyDeleteकेवल देखूंगा
ReplyDeleteतुम्हारी पीठ पर
इच्छाओं का पनपता
कंटीला जंगल...।
इच्छाओं का कंटीला जंगल!सुंदर अभिव्यक्ति!--ब्रजेंद्रनाथ
जी आभार आपका
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