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Sunday, May 2, 2021

जंगल, कंटीला जंगल


 मैं सूखा कहता हूँ

तुम रिश्तों का 

जंगल दिखाते हो।

मैं दरकन कहता हूँ

तुम टांकने के 

हुनर पर 

आ बैठते हो।

मैं जमीन कहता हूँ

तुम अपना कद 

बताते हो।

मैं आंसुओं के 

नमक पर कुछ कहता हूँ

तुम मानवीयता का 

देने लगते हो हलफनामा। 

मैं प्यास कहता हूँ 

तुम

सदियों पुरानी जीभ 

फिराते हो

नागैरत होंठों पर।

मैं जंगल कहता हूँ

तुम चतुर 

इंसान हो जाते हो।

बस 

अब मैं कुछ नहीं कहूँगा

केवल देखूंगा 

तुम्हारी पीठ पर 

इच्छाओं का पनपता 

कंटीला जंगल...।

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...