मैं सूखा कहता हूँ
तुम रिश्तों का
जंगल दिखाते हो।
मैं दरकन कहता हूँ
तुम टांकने के
हुनर पर
आ बैठते हो।
मैं जमीन कहता हूँ
तुम अपना कद
बताते हो।
मैं आंसुओं के
नमक पर कुछ कहता हूँ
तुम मानवीयता का
देने लगते हो हलफनामा।
मैं प्यास कहता हूँ
तुम
सदियों पुरानी जीभ
फिराते हो
नागैरत होंठों पर।
मैं जंगल कहता हूँ
तुम चतुर
इंसान हो जाते हो।
बस
अब मैं कुछ नहीं कहूँगा
केवल देखूंगा
तुम्हारी पीठ पर
इच्छाओं का पनपता
कंटीला जंगल...।