ये कुछ
अपना सा है
बहुत सा तुमसा
बेशक बिखरा सा है
कुछ रंगों सा
बेतरतीब
लेकिन अनछुआ।
तुम्हें देना चाहता हूँ
बेशक
बिखरा सा समय है
भरोसा रखो
ये
महकेगा
बेशक इसकी गंध
अनछुई है
ये गंध
हमारे बीच कहीं ठहर गई है।
तुम्हें
मैं अपने विचारों का आवरण
देना चाहता हूँ
बेशक सख्त है
उभरा सा।
तुम्हें
मैं समय का कोई कतरा भी
देना चाहता हूँ
हरा सा वो
तुम सहेज लेना
हथेली की रेखाओं में।
जहाँ
उगता है
हमारा घर
जहाँ अक्सर हम मिलते हैं
अनछुए से।
संदीप कुमार शर्मा