ये कुछ
अपना सा है
बहुत सा तुमसा
बेशक बिखरा सा है
कुछ रंगों सा
बेतरतीब
लेकिन अनछुआ।
तुम्हें देना चाहता हूँ
बेशक
बिखरा सा समय है
भरोसा रखो
ये
महकेगा
बेशक इसकी गंध
अनछुई है
ये गंध
हमारे बीच कहीं ठहर गई है।
तुम्हें
मैं अपने विचारों का आवरण
देना चाहता हूँ
बेशक सख्त है
उभरा सा।
तुम्हें
मैं समय का कोई कतरा भी
देना चाहता हूँ
हरा सा वो
तुम सहेज लेना
हथेली की रेखाओं में।
जहाँ
उगता है
हमारा घर
जहाँ अक्सर हम मिलते हैं
अनछुए से।
संदीप कुमार शर्मा
आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी।
ReplyDeleteखूबसूरत एहसास से बुनी रचना ।
ReplyDeleteबहुत आभार संगीता जी. .
Deleteवाह वाह! अच्छी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभार आपका आदरणीय
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteआभार आपका रंजू जी।
Deleteसुंदर भावनाओं की अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभार आपका सुनील जी।
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteआभार आपका ओंकार जी।
Deleteआदरणीय संदीप जी,
ReplyDeleteनमस्ते 🙏❗️
मैं अपने सपनों का आवरण तुझे देना चाहता हूँ.
बहुत सुंदर रचना है. साधुवाद!
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बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
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