Followers

Thursday, July 28, 2022

वो गंध अनछुई सी

ये कुछ 
अपना सा है
बहुत सा तुमसा
बेशक बिखरा सा है
कुछ रंगों सा 
बेतरतीब
लेकिन अनछुआ। 
तुम्हें देना चाहता हूँ
बेशक 
बिखरा सा समय है
भरोसा रखो
ये 
महकेगा
बेशक इसकी गंध 
अनछुई है
ये गंध 
हमारे बीच कहीं ठहर गई है।
तुम्हें 
मैं अपने विचारों का आवरण 
देना चाहता हूँ 
बेशक सख्त है
उभरा सा। 
तुम्हें 
मैं समय का कोई कतरा भी 
देना चाहता हूँ 
हरा सा वो 
तुम सहेज लेना
हथेली की रेखाओं में। 
जहाँ 
उगता है
हमारा घर 
जहाँ अक्सर हम मिलते हैं
अनछुए से। 

संदीप कुमार शर्मा

13 comments:

  1. आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी।

    ReplyDelete
  2. खूबसूरत एहसास से बुनी रचना ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभार संगीता जी. .

      Delete
  3. वाह वाह! अच्छी अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  4. Replies
    1. आभार आपका रंजू जी।

      Delete
  5. सुंदर भावनाओं की अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका सुनील जी।

      Delete
  6. Replies
    1. आभार आपका ओंकार जी।

      Delete
  7. आदरणीय संदीप जी,
    नमस्ते 🙏❗️
    मैं अपने सपनों का आवरण तुझे देना चाहता हूँ.
    बहुत सुंदर रचना है. साधुवाद!
    कृपया इस लिन्क पर जाकर मेरी रचना मेरी आवाज़ में सुने और चैनल को सब्सक्राइब करें, कमेंट बॉक्स में अपने विचार भी लिखें. सादर! -- ब्रजेन्द्र नाथ
    https://youtu.be/PkgIw7YRzyw

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।

      Delete

कागज की नाव

कागज की नाव इस बार रखी ही रह गई किताब के पन्नों के भीतर अबकी बारिश की जगह बादल आए और आ गई अंजाने ही आंधी। बच्चे ने नाव सहेजकर रख दी उस पर अग...