कोई
घर महकता है
तुम्हें पाकर।
कोई
चौखट घंटों बतियाती है
तुमसे।
कोई दालान
तुम्हारे साथ जीना चाहता है।
कोई
दरवाजा तुम्हें महसूस कर
खिलखिला उठता है
अकेले में।
कोई धूप
कहीं किसी दरवाजे की ओट से
देखने आ जाती है
तुम्हें।
ये घर
तुम्हारी मौजूदगी का हस्ताक्षर है
तुम
जैसे चाहो इसे
शब्दों में कह सकती हो।
तुम चाहो तो
इसे
मन कह दो
चाहो तो
आत्मा
या फिर
हमारे अहसास।
घर
तुमसे है
और
तुम्हीं घर की श्वास हो।
घर
तुम्हें न पाकर
उतावला सा
आ बैठता है
मुख्य दरवाजे की चौखट पर
दूर तक देखता है
एक सदी निहारता है
और
तुम्हें पाकर
समा जाता है
अहसासों की चारदीवारी में।
घर
बतियाता है
हां
ये घर बतियाता है
तुम जानती हो