जो मुस्कान बिखेरे
वो शब्द कहां से लाऊं।
जो तुम्हें बचपन दे दे
वो हालात कहां से लाऊं।
सख्त हो चली है मानवता की धरती
इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।
देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए
जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
जो मुस्कान बिखेरे
वो शब्द कहां से लाऊं।
जो तुम्हें बचपन दे दे
वो हालात कहां से लाऊं।
सख्त हो चली है मानवता की धरती
इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।
देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए
जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।
जीने के लिए कोई खास हुनर नहीं चाहिए इस दौर में केवल हर रोज हर पल हजार बार मर सकते हो ? लाख बार धक्का खाकर उस कतार से बाहर और आखिरी तक पहुं...