जो मुस्कान बिखेरे
वो शब्द कहां से लाऊं।
जो तुम्हें बचपन दे दे
वो हालात कहां से लाऊं।
सख्त हो चली है मानवता की धरती
इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।
देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए
जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...
यह बेबसी एक हक़ीक़त होती है एक अहसास से लबरेज़ दिल के लिए। जो चाहिए वो चाहे लाया न जा सके मगर लाने के जज़्बे का होना भी कुछ कम नहीं।
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका आदरणीय जितेंद्र जी।
Deleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteबहुत आभारी हूं आपका अनीता जी।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-06-2021) को 'भाव पाखी'(चर्चा अंक- 4101) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
अनिता सुधीर
अनीता जी बहुत आभार आपका...ये नेह हमारी रचनाधर्मिता को और मजबूत बनाएगा। आभार आपका
Deleteहृदयस्पर्शी!!!
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका आदरणीय विश्वमोहन जी।
Deleteबहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteसादर
बहुत आभारी हूं आपका अनीता जी।
Deleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका आदरणीय ओंकार जी।
Deleteबहुत सुंदर ....
ReplyDeleteबहुत मार्मिक.....
बहुत आभारी हूं आपका डॉ. शरदसिंह मैम।
Deleteसख्त हो चली है मानवता की धरती
ReplyDeleteइंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।
देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए
जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।
अभी भी कुछ मानवता जिन्दा है...तभी तो धरा टिकी है,बस जरूरत है... जागरूकता की,कुछ करने का जज्बा मगर...असमर्थ होने की बेबसी को हृदयस्पर्शी शब्द दिए है आपने ,सादर नमन आपको
हमेशा की तरह बहुत ही गहन प्रतिक्रिया कामिनी जी...। लेखन का यही सौंदर्य हम सभी को शब्दों में और गहरे ले जाता है।
Deleteकोमल हृदय पीर समेटना तो चाहता है , यही तो है मानवता बस कुछ और सक्रिय कदम सब कुछ ला सकते हैं ।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी सृजन।
बहुत बहुत आभारी हूं आपका।
Deleteमर्मस्पर्शी
ReplyDeleteआभारी हूं आपका अनुराधा जी।
Deleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका।
Deleteओह...बहुत ही खूबसूरती से आपने ये अंक तैयार किया है...काफी मेहनत है और उसे प्रस्तुत करने की खूबसूरती और भी शानदार है। साथी ब्लॉगर सभी का लेखन बहुत गहन है, सभी को बहुत शुभकामनाएं, लेकिन अपनी बात कहूं तो मन में गुदगुदी सी हुई कि जब आपने मेरे ब्लॉग के विषय में लिखा...खुशी मानव स्वभाव है...और आप सभी के नेहाशीष से ये संभव हो पाया है...। नेह बनाए रखियेगा...। मैं इस ग्रुप और इसके सभी एडमिन का आभारी हूं जो एक स्वस्थ्य परिवेश में साहित्य की चर्चा होती है। संगीता जी साधुवाद...।
ReplyDeleteछाँव खोजती तस्वीर पूरी रचना को अपने अंदर तक समाहित कर गई,अंतर्मन को छूने में कामयाब,सुंदर रचना के लिए आपको बहुत बधाई।आपको मेरा हार्दिक नमन।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी...। आपकी प्रतिक्रिया हमेशा ही बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है।
Deleteह्रदय स्पर्शी सृजन ....बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका उर्मिला जी।
Deleteकम शब्दों में गहन चिंतन।
ReplyDeleteआने वाली पीढ़ियों के लिए आपकी विहृवलता विचारणीय है। सचमुच सोचना तो बनता है हम क्या सौंप रहे हैं धरोहर के रूप में।
प्रणाम सर
सादर।
जी बहुत आभार आपका श्वेता जी। जीवन हमसे जब लिखवाता है हमें उसका अनुसरण करते जाना चाहिए।
Deleteसख्त हो चली है मानवता की धरती
ReplyDeleteइंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।
देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए
जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।
सही कहा अब इंसान और इंसानियत ढूँढ़कर भी नहीं मिल रही...
बहुत ही गहन चिंतनपरक लाजवाब सृजन।
बहुत बहुत आभारी हूं आपका सुधा जी।
Deleteकाश ऐसी कोई खाद होती जो मानवता की धरती की सख्ती कम करके हरियाली ले आती । मर्मस्पर्शी ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका संगीता जी।
Deleteसर्वजनहिताय की कामना समेटे छोटी सी सुन्दर रचना-
ReplyDeleteइंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।
देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए
बहुत बहुत आभारी हूं आपका उषा किरण जी।
Deleteसख्त हो चली है मानवता की धरती
ReplyDeleteइंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं
वाह👏👏👏
बहुत बहुत आभारी हूं आपका
Deleteसख्त हो चली है मानवता की धरती
ReplyDeleteइंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं
वाह👏👏👏
बहुत बहुत आभारी हूं आपका उषा किरण जी।
Deleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका कविता जी।
ReplyDeleteसख्त हो चली है मानवता की धरती
ReplyDeleteइंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं
सहज सरल शब्दों में .. एक कटु सत्य लिखा आपने ...
बहुत-बहुत बधाई उत्कृष्ट लेखन के लिए
बहुत बहुत आभार आपका सीमा जी...।
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