Followers

Friday, June 18, 2021

वो छांव कहां से लाऊं










 जो मुस्कान बिखेरे

वो शब्द कहां से लाऊं।

जो तुम्हें बचपन दे दे

वो हालात कहां से लाऊं।

सख्त हो चली है मानवता की धरती

इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।

देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए

जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।

43 comments:

  1. यह बेबसी एक हक़ीक़त होती है एक अहसास से लबरेज़ दिल के लिए। जो चाहिए वो चाहे लाया न जा सके मगर लाने के जज़्बे का होना भी कुछ कम नहीं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभारी हूं आपका आदरणीय जितेंद्र जी।

      Delete
  2. मार्मिक रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभारी हूं आपका अनीता जी।

      Delete
  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-06-2021) को 'भाव पाखी'(चर्चा अंक- 4101) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।

    अनिता सुधीर

    ReplyDelete
    Replies
    1. अनीता जी बहुत आभार आपका...ये नेह हमारी रचनाधर्मिता को और मजबूत बनाएगा। आभार आपका

      Delete
  4. Replies
    1. जी बहुत आभारी हूं आपका आदरणीय विश्वमोहन जी।

      Delete
  5. बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन।
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभारी हूं आपका अनीता जी।

      Delete
  6. बहुत ही सुंदर

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभारी हूं आपका आदरणीय ओंकार जी।

      Delete
  7. बहुत सुंदर ....
    बहुत मार्मिक.....

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभारी हूं आपका डॉ. शरदसिंह मैम।

      Delete
  8. सख्त हो चली है मानवता की धरती

    इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।

    देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए

    जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।


    अभी भी कुछ मानवता जिन्दा है...तभी तो धरा टिकी है,बस जरूरत है... जागरूकता की,कुछ करने का जज्बा मगर...असमर्थ होने की बेबसी को हृदयस्पर्शी शब्द दिए है आपने ,सादर नमन आपको

    ReplyDelete
    Replies
    1. हमेशा की तरह बहुत ही गहन प्रतिक्रिया कामिनी जी...। लेखन का यही सौंदर्य हम सभी को शब्दों में और गहरे ले जाता है।

      Delete
  9. कोमल हृदय पीर समेटना तो चाहता है , यही तो है मानवता बस कुछ और सक्रिय कदम सब कुछ ला सकते हैं ।
    हृदय स्पर्शी सृजन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका।

      Delete
  10. Replies
    1. आभारी हूं आपका अनुराधा जी।

      Delete
  11. बहुत खूबसूरत रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका।

      Delete
  12. ओह...बहुत ही खूबसूरती से आपने ये अंक तैयार किया है...काफी मेहनत है और उसे प्रस्तुत करने की खूबसूरती और भी शानदार है। साथी ब्लॉगर सभी का लेखन बहुत गहन है, सभी को बहुत शुभकामनाएं, लेकिन अपनी बात कहूं तो मन में गुदगुदी सी हुई कि जब आपने मेरे ब्लॉग के विषय में लिखा...खुशी मानव स्वभाव है...और आप सभी के नेहाशीष से ये संभव हो पाया है...। नेह बनाए रखियेगा...। मैं इस ग्रुप और इसके सभी एडमिन का आभारी हूं जो एक स्वस्थ्य परिवेश में साहित्य की चर्चा होती है। संगीता जी साधुवाद...।

    ReplyDelete
  13. छाँव खोजती तस्वीर पूरी रचना को अपने अंदर तक समाहित कर गई,अंतर्मन को छूने में कामयाब,सुंदर रचना के लिए आपको बहुत बधाई।आपको मेरा हार्दिक नमन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी...। आपकी प्रतिक्रिया हमेशा ही बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है।

      Delete
  14. ह्रदय स्पर्शी सृजन ....बहुत सुन्दर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका उर्मिला जी।

      Delete
  15. कम शब्दों में गहन चिंतन।
    आने वाली पीढ़ियों के लिए आपकी विहृवलता विचारणीय है। सचमुच सोचना तो बनता है हम क्या सौंप रहे हैं धरोहर के रूप में।

    प्रणाम सर
    सादर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका श्वेता जी। जीवन हमसे जब लिखवाता है हमें उसका अनुसरण करते जाना चाहिए।

      Delete
  16. सख्त हो चली है मानवता की धरती

    इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।

    देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए

    जो राहत दे वो छांव कहां से लाऊं।
    सही कहा अब इंसान और इंसानियत ढूँढ़कर भी नहीं मिल रही...
    बहुत ही गहन चिंतनपरक लाजवाब सृजन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका सुधा जी।

      Delete
  17. काश ऐसी कोई खाद होती जो मानवता की धरती की सख्ती कम करके हरियाली ले आती । मर्मस्पर्शी ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका संगीता जी।

      Delete
  18. सर्वजनहिताय की कामना समेटे छोटी सी सुन्दर रचना-
    इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं।

    देख रहा हूं अहसासों को बिखरते हुए

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका उषा किरण जी।

      Delete
  19. सख्त हो चली है मानवता की धरती

    इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं
    वाह👏👏👏

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका

      Delete
  20. सख्त हो चली है मानवता की धरती

    इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं
    वाह👏👏👏

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका उषा किरण जी।

      Delete
  21. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

    ReplyDelete
  22. बहुत बहुत आभारी हूं आपका कविता जी।

    ReplyDelete
  23. सख्त हो चली है मानवता की धरती
    इंसान उगा दे वो खाद कहां से लाऊं

    सहज सरल शब्दों में .. एक कटु सत्य लिखा आपने ...
    बहुत-बहुत बधाई उत्कृष्ट लेखन के लिए

    ReplyDelete
  24. बहुत बहुत आभार आपका सीमा जी...।

    ReplyDelete

कागज की नाव

कागज की नाव इस बार रखी ही रह गई किताब के पन्नों के भीतर अबकी बारिश की जगह बादल आए और आ गई अंजाने ही आंधी। बच्चे ने नाव सहेजकर रख दी उस पर अग...