सुबह
सूरज के साथ
उग आते हैं
मजदूर सड़कों पर।
पूरा दिन
सिस्टम की अतड़ियों में
खोजते हैं
निवाले।
सूखते दिन में
उम्मीद कई दफा
पसीने सी टपकती है।
फटी जेब में
रुमाल से बंधे
रुपयों में
सपने बुनता मजदूर
अस्त हो जाता है
सूरज के साथ।
अगले दिन
पौं फटते ही
दोबारा उगने के लिए..।
नायाब अभिव्यक्ति...सचमुच एक मजदूर अस्त हुआ इंसान ही होता है,संदीप जी यहां मजदूरों का भी कोई प्रशिक्षण केंद्र होना चाहिए, जहां उन्हें उनके अधिकार,उनके कर्तव्य तथा कार्यप्रणाली को समझाया जा सके,और उनकी कमाई का व्यय भी सिखाया जाय, आखिर वो जानते ही नहीं कि जीवन में को कुछ भी वो कमाते हैं,उसको खर्च कैसे किस रूप में करें,जिस दिन कमाते हैं,उस दिन खूब खर्चा और फिर वही फाके भरे दिन । तात्पर्य ये है कि मैं कई ऐसे मजदूरों को जानती हूं, जिन्हें आय व्यय का कोई ज्ञान नहीं,कितनी भी मेहनत करें,कितना भी कमाएं, उनकी गरीबी खत्म हो नहीं होती । सार्थक विषय उठाने के लिए बहुत शुक्रिया आपका।
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी। जी बहुत आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी। सच तो ये है कि हमारे देश में ये वो तबका है जिसके नाम पर हर बार चुनाव जीते जाते हैं लेकिन ये हर बार हारता है...।
Deleteफटी जेब में
ReplyDeleteरुमाल से बंधे
रुपयों में
सपने बुनता मजदूर
अस्त हो जाता है
सूरज के साथ।
अगले दिन
पौं फटते ही
दोबारा उगने के लिए..।
दिहाड़ी मजदूरों का बहुत ही मर्मस्पर्शी आँकलन...
सुबह से शाम तक की मेहनत का मेहनताना रुमाल में बाँधकर जेब में डाले रात की रोटी का जुगाड़.. ताकि उग सके सुबह सूर्य उगते ही।
वाह!!!
लाजवाब सृजन।
आभार आपका सुधा जी। ये दर्द लेकर मजदूर जीते हैं, जीते हैं और आखिर में खत्म हो जाते हैं, क्यों है उनके पक्ष में इतना अधिक अंधेरा....क्यों उन्हें सपने देखने की उर्जा हमारे इस समाज में नहीं मिलती।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 17 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभारी हूं आपका आदरणीय अग्रवाल जी। आपके द्वारा रचना का चयन मन को उत्साह देता है।
Delete"पूरा दिन
ReplyDeleteसिस्टम की अतड़ियों में
खोजते हैं
निवाले।"
और ..
"फटी जेब में
रुमाल से बंधे
रुपयों में
सपने बुनता मजदूर" .. जैसी अतुल्य बिम्बों से अलंकृत रचना .. जिसमें किसी भी मजदूर की व्यथा-कथा प्रस्तुत शब्द-चित्र में झलक जा रही है ...
बहुत आभारी हूं आदरणीय सुबोध जी।
Deleteअति अंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूं आदरणीय महाजन जी।
ReplyDeleteहमारे घर के पास ही एक मकान बन रहा है, मजदूर आते हैं वहाँ, बड़े ही जीवंत लगते हैं, मोबाइल पर गीत सुनते हैं, आपस में बातें करते हैं और कभी-कभी तो जोर-जोर से उनके हँसने की आवाजें भी आती हैं, और उनकी काम करने की क्षमता देखकर तो आश्चर्य होता है, नीचे से एक ईंट उछालता है और दूसरा ऊपर पकड़ लेता है, पौष्टिक भोजन तो शायद ही मिलता हो उन्हें पर मेहनत हमसे बहुत ज्यादा करते हैं. अवश्य ही उनके लिए समाज को सोचना चाहिए, ताकि उनके बच्चे पढ़ाई कर सकें और उन्हें मजदूर बनने के लिए विवश न होना पड़े
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका अनीता जी।
Deleteवाह!हृदयस्पर्शी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका शुभा जी।
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