धधकती धरती
पर
विचारों का
कोलाहल है।
पत्तों सा
तप रहा है
आदमी।
कोलाहल का
शोर
शाब्दिक है
अर्थहीन भी।
गली के नुक्कड़
पर
भोंपू सा
बजता सिस्टम
अब
कलेजे को
चीर रहा है।
दूर कोई
आदमी फटे जूतों
से झांकते तलवे में
बिछा रहा है
आदतों की कतरन।
कोई
बैसाखी बेच रहा है
कोई
मांग रहा है
नौकरी।
कैसी भयावह तस्वीर है
जमीर की बाहरी परत की।
कतरा-कतरा
और एक दूसरे में
उलझा सा
समय और उसका
सख्त चेहरा।
दूर कहीं
प्रलोभनों की
नुमाइश लगी है
पैंतरे
खरीदते चेहरे
तिकड़म बिछा कर
सो रहे है
भूखे बैल की
परछाई की छांव में।
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मनोज जी।
ReplyDeleteहरीभरी धरती पर मन्त्रों का उच्चारण होता था कभी... शीतलता में तृप्त रहता था आदमी...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteप्रलोभनों की
ReplyDeleteनुमाइश लगी है
पैंतरे
खरीदते चेहरे
तिकड़म बिछा कर
सो रहे है
भूखे बैल की
परछाई की छांव में।वाह,संदीप जी,लाजवाब अभिव्यक्ति।
जी बहुत आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी।
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