फ़ॉलोअर

मंगलवार, 15 जून 2021

भोंपू सा बजता सिस्टम


 

धधकती धरती

पर

विचारों का

कोलाहल है।

पत्तों सा

तप रहा है

आदमी।

कोलाहल का

शोर

शाब्दिक है

अर्थहीन भी।

गली के नुक्कड़

पर

भोंपू सा

बजता सिस्टम

अब

कलेजे को

चीर रहा है।

दूर कोई

आदमी फटे जूतों

से झांकते तलवे में

बिछा रहा है

आदतों की कतरन।

कोई

बैसाखी बेच रहा है

कोई

मांग रहा है

नौकरी।

कैसी भयावह तस्वीर है

जमीर की बाहरी परत की।

कतरा-कतरा

और एक दूसरे में

उलझा सा

समय और उसका

सख्त चेहरा।

दूर कहीं

प्रलोभनों की

नुमाइश लगी है

पैंतरे

खरीदते चेहरे

तिकड़म बिछा कर

सो रहे है

भूखे बैल की

परछाई की छांव में।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार आपका मनोज जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. हरीभरी धरती पर मन्त्रों का उच्चारण होता था कभी... शीतलता में तृप्त रहता था आदमी...

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रलोभनों की

    नुमाइश लगी है

    पैंतरे

    खरीदते चेहरे

    तिकड़म बिछा कर

    सो रहे है

    भूखे बैल की

    परछाई की छांव में।वाह,संदीप जी,लाजवाब अभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  4. जी बहुत आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी।

    जवाब देंहटाएं

तो जिंदगी आसान है

 जीने के लिए  कोई खास हुनर नहीं चाहिए इस दौर में केवल हर रोज हर पल हजार बार मर सकते हो ? लाख बार धक्का खाकर उस कतार से बाहर और आखिरी तक पहुं...