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Tuesday, June 15, 2021

भोंपू सा बजता सिस्टम


 

धधकती धरती

पर

विचारों का

कोलाहल है।

पत्तों सा

तप रहा है

आदमी।

कोलाहल का

शोर

शाब्दिक है

अर्थहीन भी।

गली के नुक्कड़

पर

भोंपू सा

बजता सिस्टम

अब

कलेजे को

चीर रहा है।

दूर कोई

आदमी फटे जूतों

से झांकते तलवे में

बिछा रहा है

आदतों की कतरन।

कोई

बैसाखी बेच रहा है

कोई

मांग रहा है

नौकरी।

कैसी भयावह तस्वीर है

जमीर की बाहरी परत की।

कतरा-कतरा

और एक दूसरे में

उलझा सा

समय और उसका

सख्त चेहरा।

दूर कहीं

प्रलोभनों की

नुमाइश लगी है

पैंतरे

खरीदते चेहरे

तिकड़म बिछा कर

सो रहे है

भूखे बैल की

परछाई की छांव में।

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...