बहुत अधूरा सा
कभी
पूरा नहीं होता।
कुछ टूटा सा
कभी
गहरे टूट जाता है।
कूछ
टूटने में
जुड़ाव की
गुंजाइश
हमेशा रहती है।
टूटने
और
जुड़ने में
समय
बहुत प्रमुख
हो जाया करता है।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
बहुत अधूरा सा
कभी
पूरा नहीं होता।
कुछ टूटा सा
कभी
गहरे टूट जाता है।
कूछ
टूटने में
जुड़ाव की
गुंजाइश
हमेशा रहती है।
टूटने
और
जुड़ने में
समय
बहुत प्रमुख
हो जाया करता है।
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...