डायरी के कुछ पीले पन्नों
से आज मिला
कुछ पुराना मैं और मुझसी यादें।
समय था जब
डायरी पर सपाट उतर जाया करती थीं भावनाएं
अब स्याही की थकन में चूर यादें
बेहद सुस्त पीली हो चुकी हैं।
पीलेपन का भार
शब्द भी सह नहीं पाए
और
लकीरों के सिराहने
टूटकर लेट गए हैं।
सहेज रहा हूं दोबारा
पन्नों की लकीरों में टूट गए शब्दों, भावों और विचारों को।
सोचता हूं
कितना सहज था मैं
जब डायरी के हर पन्नें की भूख
के बदले दे दिया करता था
अपनी यादें
और डायरी मुस्कुरा उठती थी।
सालों बाद जब
उम्र रेगिस्तानी अहसासों से जूझकर
जीना सीख गई है
भाव और शब्दों का जमा खर्च।
ऐसे में
एक दिन डायरी हाथ आ गई
और
मैं उस डायरी के पन्नों पर
दोबारा बिछाने लगा
जीवन का बिछौना।
कुछ फटा सा मैं
और
कुछ उधडे़ से शब्द
डायरी ही तो है
कब तक सीती रहेगी मुझे उन शब्दों में पिरोकर।
डायरी के कई पन्ने हैं
जिन्हें पलटने का साहस
नहीं जुटा पा रहा हूं
क्योंकि
खुले हुए पन्ने पर मैं
अपने बाबूजी के साथ उंगली थामे घूमने जा रहा हूं।
नहीं पलटना चाहता डायरी
क्योंकि
डरता हूं अगले पन्ने की आहट सुन
बाबूजी लौट जाएंगे
स्मृति से उस अनंत यात्रा की ओर।
जानता हूं
बाबूजी नहीं हैं
लेकिन डायरी है,
उस पर अब भी उनके भाव में लिपटे शब्द हैं
सीख दे जाते हैं
उम्र के थकान वाले मौसम में।
हां डायरी पीली हो गई है
शब्द पीले हो गए हैं
हां यादें अब भी हरी हैं
जैसे कि बाबूजी की मुस्कान।