देखा है कभी
मदांध बारातियों के पैर के नीचे
दबे पैसे को उठाने
कुचले गए
हाथ को सहलाते
बच्चे के
रुआंसे चेहरे को।
वह कई बार
आंखें मलता है
अंदर ही अंदर बिलखता है
अपने जीवन पर
अपनी बेबसी पर।
डबडबाई आंखों से
नमक लेकर
मल लेता है
अपने हाथ पर
आई खरोंचों के निशान से
बहते
खून पर।
हाथ में सिक्का दबाए
देखता है
उस
बाराती को
जिसकी जेब
नोटों से भरी है
और
वह नशे में धुत्त।
सोचता है
जितनी बार
जूते
उसके हाथ को मसलते हैं
उतनी बार
एक समाज
ढहता है
और
दूसरा समाज
क्रूर सा
ठहाके लगाता है।
सहमी सी बेबसी
का
समाज
अब भी
उस क्रूर ठहाके लगाते
समाज
से नजरें नहीं मिला पाता
क्योंकि
वह
बे-कद
काफी नीचे है।
सोचता हूं
बराबरी का दर्जा
यदि शब्दों की भूख ही चाहता है
तो
भूख
और
तृप्ति के बीच
यह फासला
मिटता क्यों नहीं...?
सोचियेगा
क्योंकि
भूख का जंगल
बहुत निर्दयी है
वहां
पेट से चिपटी अंतड़ियां
सवाल नहीं करतीं
केवल
वार करती हैं
अपने
आप पर...।