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Tuesday, July 13, 2021

बेबसी का समाज


 

देखा है कभी

मदांध बारातियों के पैर के नीचे

दबे पैसे को उठाने

कुचले गए

हाथ को सहलाते

बच्चे के

रुआंसे चेहरे को। 

वह कई बार

आंखें मलता है

अंदर ही अंदर बिलखता है

अपने जीवन पर

अपनी बेबसी पर।

डबडबाई आंखों से 

नमक लेकर

मल लेता है

अपने हाथ पर 

आई खरोंचों के निशान से

बहते

खून पर।

हाथ में सिक्का दबाए

देखता है

उस

बाराती को

जिसकी जेब

नोटों से भरी है

और

वह नशे में धुत्त।

सोचता है

जितनी बार

जूते 

उसके हाथ को मसलते हैं

उतनी बार

एक समाज 

ढहता है

और 

दूसरा समाज

क्रूर सा

ठहाके लगाता है।

सहमी सी बेबसी

का 

समाज

अब भी

उस क्रूर ठहाके लगाते

समाज 

से नजरें नहीं मिला पाता

क्योंकि 

वह

बे-कद 

काफी नीचे है।

सोचता हूं

बराबरी का दर्जा

यदि शब्दों की भूख ही चाहता है

तो 

भूख 

और

तृप्ति के बीच

यह फासला

मिटता क्यों नहीं...?

सोचियेगा 

क्योंकि

भूख का जंगल

बहुत निर्दयी है

वहां

पेट से चिपटी अंतड़ियां

सवाल नहीं करतीं

केवल

वार करती हैं

अपने 

आप पर...।


ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...