मां
की आंखें उम्र के पहले
धंस जाती हैं
चिंता के भंवर में।
वह
तराशती है
घर
बच्चे
सपने
पति
आंगन
उम्मीद
संस्कार।
बदले में
हंसते हुए न्यौछावर कर देती है
अपनी उम्र
अपनी मंजिल
अपनी ख्वाहिशें।
हर बार
केवल मुस्कुराती है
छिपाए हुए पैसे भी
कहां छिपा पाती है।
घर सजाती है
खुद संवरने के दौर में भी।
बच्चों के चेहरों को
कई बार
निहारती है
दर्द पढ़ती है
उसे खुद जीती है
खुद सीती है।
परिवार को साथ पाकर
खिलखिला उठती है अक्सर
अकेले में
क्योंकि
तब वह जीत को महसूस करती है।
डर जाती है
घर की एक भी दरार को देखकर
अंदर तक कांप जाता है उसका मन
घर को उदास पाकर।
उम्र के पहले
उसे पसंद है
ढल जाना
उसे स्वीकार्य है
सांझ का सच
लेकिन
उसे स्वीकार्य नहीं है घर की चीखें
घर का एकांकीपन
बच्चों के चेहरे पर उदासी
पति के चेहरे पर थकन
घर के आंगन में सूखा...।
ओह, सोचता हूं
अपने और अपनों में
कितनी विभाजित हो जाती है
अक्सर मां
जो
कभी शिकायत नहीं करती
अपनी थकन की
जिसकी आंखें
स्याह घेरे के बीच से भी
मुस्कुराती हैं
क्योंकि मां
चेहरे को पढ़़ना
बिना कुछ कहे समझना
और
दर्द को जीना जानती है
तभी तो
वह रच पाती है
एक घर
एक परिवार
और
बहुत सारे संस्कार।
सोचता हूं
कितनी सहजता से कर लिया करती है
मां
उधडे़ रिश्तों की तुरपाई।
मुस्कुराती है
जब बहुत थक जाती है
उम्मीद करती है
उससे कोई पूछ ले
दर्द कितना है
अगले ही पल
उठ जाती है
ये सोचकर
बच्चे उसे हारता देखकर
कहीं हार न जाएं
जीवन
और
दोबारा
पीसने लगती है
उम्र की चक्की में
घर की खुशियों का अनाज।