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Monday, August 9, 2021

वह रोटी, वह भूगोल

झुलसे से समाज में

रोटी का आकार बेशक सभी के लिए 

गोल हो सकता है।

झुलसे से एकांकी घर में

रोटी की रंगत

अनेकानेक

स्याह सी ही होती है। 

भूखे पेट

और 

उनकी अंतड़ियों के बीच

कोई भूगोल

नहीं होता

केवल

भूख ही भाषा 

और

सर्वव्यापी परिभाषा होती है।

यहां आंखों की कोरों में नमक

अब सवाल कहा जाता है। 

भूख अक्सर

बस्तियां में नग्नावस्था में घूमती है

कच्चे घरों में

बच्चों के चेहरे

भी रोटी जैसे हो जाते हैं

गोल और बहुत स्याह।

भूखे लोग

सवाल नहीं करते

रोटी मांगते हैं

और 

रोटी को ही वह

सवाल कहते हैं।

समाज के चेहरे पर

अब

दर्दशा की झुर्रियां हैं

जिन्हें

लेकर 

वह अब

डरता है 

उन गरीब बस्तियों में जाने से

उसे भय सताता है

कहीं

बच्चे भूख और रोटी के भूगोल को

एक न कर दें

और कहीं

कोई झुलसी की जिद

लेप न दे

चेहरे पर 

सवालों का स्याह घोल। 

बस्तियों में आज भी

घर टपकते हैं

बच्चे नंगे घूमते हैं

नालियों के किनारे जलते हैं चूल्हे

अब भी बारिश का भय

खाली पाइपों में 

ले जाता है भयभीत चेहरों को

यह दिखाने की 

जिंदगी केवल रिसती नहीं है

वह

कभी कभी

पूरा का पूरा

बहा ले जाती है

अपनी जिद में

और 

दूर टापू पर खड़ा कोई समाज

हिज्जे लेकर 

हलकाला हुआ चीखता सा कहता है

बचा लो कोई उन्हें

देखो वहां भी बस्ती है

वहां भी कोई तो उम्मीद बसती है...।

डूबी बस्ती की 

सूखी पीठ पर 

बेशर्मी के आश्वासन चिपटा दिए जाते हैं

और

अगली बार उन्हीं को नोंच नोंचकर

गरीब

चूल्हे जलाकर रोटी बना लेते हैं।

भूखों 

की बस्ती में

आश्वासन की 

न जमीन होती है

न ही आसमान

हां होता है तो केवल

एक खूबसूरत फरेब। 

 

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