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Tuesday, June 22, 2021

शरीर कभी प्रेम नहीं हो सकता











प्रेम 

सूखे पत्तों पर 

लिखा जा सकता है

लेकिन 

उस पर 

भाषा और भाव

केवल प्रकृति ही उकेर सकती है।

प्रेम

व्यक्त किया जा सकता है

केवल अहसास में

बुजुर्ग होते शरीरों के दरमियान।

प्रेम 

देखा जा सकता है

चातक की 

प्रतीक्षा के प्रतिपल

प्रबल होते विश्वास में।

प्रेम

स्पर्श किया जा सकता है

सूखी धरती के 

फटे शरीर की 

दरारों में

उगते किसी

अकेले

अंकुरण की

पीठ को सहलाकर।

प्रेम

तृप्ति दे सकता है

हजारों योजन

की यात्रा

करते

उन पक्षियों को

जिन्हें

भरोसा है 

अब भी 

हमारी आदमीयत पर

जो

कंठ तृप्त करने

अब भी 

उतर आते हैं

हमारे सूखते शहरों की 

गर्म और तपती

छतों पर 

झुलसती उम्मीदों की पीठ पर रखे

सकोरों के पानी पर। 

प्रेम

में प्रेम से ही

प्रेम का 

अंकुरण फूटता है

प्रेम 

यहां कभी भी आदमखोर नहीं होता

प्रेम

अब भी

पक्षियों के थके हुए 

परों 

में झुलसती गर्मी के बीच

छांह भर लेने 

के संकल्प का ही दूसरा नाम है। 

शरीर 

और

प्रेम

एक-दूसरे के पूरक हैं

क्योंकि 

शरीर कभी प्रेम नहीं हो सकता

और प्रेम

का कोई शरीर नहीं होता।

प्रेम

अलसुबह

तुम्हारे चेहरे की

उस

उनींदी मुस्कान का नाम है

जिससे

ये घर

और 

ये दालान

जिसमें

एक बूढ़ा नीम भी है

प्रेम करते हैं। 

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