हर रात
नदियां कुरेदी जाती हैं
खरोंची जाती हैं
सुबह तक
वे
बाज़ार में होती हैं।
दोपहर तक
ठिकानों पर
और
शाम तक
मकानों की दीवारों में चिन दी जाती हैं।
ऐसे रोज नदियां
घिस रहीं हैं
अंदर से।
उनकी देह रज से बने मकानों में
सदियों से एक सवाल
सुलझ नहीं पाया
कि
आखिर नदियां खोखली क्यों हो रही हैं?
अनुत्तरित सवाल
अखबारों में पढ़कर
गाड़ीवान
अगली सुबह फिर
नदी की छाती पर सवार हो जाता है
उसे कुरेदने...।
हम बहुत चिंता करते हैं
कि
वाकई भविष्य खतरे में है
नदियां नहीं बचेंगी
तो
कैसे बचेगा भविष्य।
खुरची नदी
अपने आप को सौंप देती है
उन लौह नखों के वाहक को
अंदर ही अंदर रोती है
चीखती है
और
गहरे तक
समा जाती है अपने ही अंतस में।