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Sunday, August 29, 2021

सच जानता हूं

तुम्हें सच देखना आता है

सच 

कहना क्यों नहीं आता।

तुम सच जानते हो

मानते नहीं।

तुम्हें सच की चीख का अंदाजा है

फिर भी चुप हो ही जाते हो।

जानते हो तुम 

कि

सच और सच 

के बीच

एक मजबूरी का जंगल है

उसमें

हजार बार

घुटते हो तुम 

अपने प्रेरणाशून्य जम़ीर के साथ।

जानता हूं 

सच 

अब आदमखोर जिद के सख्त जबड़ों में दबा

मेमना है

जिसे 

जंगल में घुमाया जा रहा है

अपनी सनक को साबित करने की खातिर। 

एक दिन 

जबड़े से छिटककर सच

गिरेगा किसी खोह में

जहां 

दोबारा 

गढ़ेगा 

कुछ आदिमानव

जो

सच्चे हों

खरे हों

बेशक

पढ़ें लिखे ना हों...।

 

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...