उम्र की सुबह
में
सांझ
अक्सर
बेज़ार होती है।
धूप, बवंडर और जीवन
दोपहर
का अर्थ
समझाते हैं।
दोपहर
के सिराहने
कहीं
सांझ बंधी होती है
जैसे
तेज प्रवाह
वाली
नदी के किनारे
बंधी होती हैं
बेबस
और
कर्मठ नौकाएं।
सांझ
किनारे पर
बैठी किसी
स्त्री के समान होती है
जो
पूरे दिन को
जी जाती है
एक उम्र की तरह
इस भरोसे की
सांझ है ना
सुस्ताने के लिए
अपने लिए।
दोपहर
से सांझ का सफर
लौटने की
अनुभूति है।
सांझ समझी जा सकती है
सांझ के समय
उम्र के उस
तटबंध पर बंधी नाव
की
खुलने को आतुर
गांठ की जद्दोजहद में।
उस स्त्री में
उसके उम्र जैसे
दिन में
उस शांत होते
पक्षियों के कलरव में
जो
सुबह अगले दिन को दोबारा
पढ़ने के लिए
घोंसले में दुबक जाते हैं
सांझ और रात के
मिलन से पूर्व।
सांझ का रात होना
ही
सुबह की प्रसव पीड़ा है।