धरा दरक रही है
दरारों में गहरे सुनाई देते हैं
सुधारों के खोखले शंखनाद।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं
टूटकर कराहते हुए
हो रहे हैं पानी-पानी
और
हम उन्हें पिघलता देख
टूट रहे हैं अंदर तक
इस चिंता में
कल कैसा होगा
होगा भी
या नहीं होगा
क्योंकि आज हम केवल चिंता में ही
पिघल रहे हैं
काश की
धरा के साथ दरकते
और
ग्लेशियर के साथ
अंदर से
पिघलकर टूट जाते।
हवा
में घुल रहा है
प्रदूषण का जहर
और
हम जिंदा हैं
क्योंकि हमारी दुनिया में
मास्क हैं, सिलेंडर हैं और हमारी सनक वाली जिद।
कैसी जिद है
कैसी सनक
हम नहीं जानते
कल के पहले आज को हम दांव पर लगा चुके हैं
सूली पर चढ़ चुके हैं
हमारी नदियां, तालाब, बावड़ियां, कुएं
हमें
पत्थर का सूखा सा जहां चाहिए
वह अवश्य मिलेगा
खुश हो जाईए हम मिटने की ओर अग्रसर हैं।