धरा दरक रही है
दरारों में गहरे सुनाई देते हैं
सुधारों के खोखले शंखनाद।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं
टूटकर कराहते हुए
हो रहे हैं पानी-पानी
और
हम उन्हें पिघलता देख
टूट रहे हैं अंदर तक
इस चिंता में
कल कैसा होगा
होगा भी
या नहीं होगा
क्योंकि आज हम केवल चिंता में ही
पिघल रहे हैं
काश की
धरा के साथ दरकते
और
ग्लेशियर के साथ
अंदर से
पिघलकर टूट जाते।
हवा
में घुल रहा है
प्रदूषण का जहर
और
हम जिंदा हैं
क्योंकि हमारी दुनिया में
मास्क हैं, सिलेंडर हैं और हमारी सनक वाली जिद।
कैसी जिद है
कैसी सनक
हम नहीं जानते
कल के पहले आज को हम दांव पर लगा चुके हैं
सूली पर चढ़ चुके हैं
हमारी नदियां, तालाब, बावड़ियां, कुएं
हमें
पत्थर का सूखा सा जहां चाहिए
वह अवश्य मिलेगा
खुश हो जाईए हम मिटने की ओर अग्रसर हैं।
ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, मानव यदि समय रहते सजग नहीं हुआ तो आने वाली पीढ़ियों को इसके परिणाम झेलने होंगे
ReplyDeleteसही कहा आपने...।आभार अनिता जी।
Deleteआपकी लिखी रचना सोमवार 28 नवम्बर 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
आभार आपका संगीता जी।
ReplyDeleteसही कहा
ReplyDeleteआभारी हूं आपका
Deleteधरा का दरकना ग्लेशियर पिघलना ये सब चेतावनी है हमे प्रकृति की...अभी भी ना संभले तो परिणाम बुरे ही होंगे।
ReplyDeleteबहुत सुंदर ....लाजवाब सृजन।
आभारी हूं आपका
Deleteआदरणीय सर , बहुत ही सशक्त मन को झकझोरता हुआ सृजन । सच है माँ प्रकृति पर जो हमारे द्वारा नित्य अत्याचार होते हैं , वह हमें हमारे विनाश की ओर धकेल रहे हैं । प्रकृति हमारे सारे आघात श कर भी , हमारा पालन-पोषण करती है और हमें विनाश से बचाए रखने का प्रायत्न करती है पर कभी न कभी तो उसका संयम टूटेगा । सादर प्रणाम आपको व हार्दिक आभार । एक अनुरोध भी , मेरे दो ब्लॉग हैं , कृपया दोनों पर आकर अपना आशीष दीजिए।
ReplyDeleteआभारी हूं आपका। अवश्य आपके ब्लॉग देखकर अपनी प्रतिक्रिया दूंगा।
Deleteभविष्य की भयावह तस्वीर उकेरती आपकी गहन अभिव्यक्ति को नमन है सर।
ReplyDeleteप्रणाम
सादर।
आभारी हूं आपका।
Deleteपर्यावरण की भयावहता सभी ओर दिखने लगी है पर आज भी हम सचेत नहीं हो रहे हैं ।
ReplyDeleteसच कहा आपने कल क्या हम तो आज ही
नाश के कगार पर हैं।
यथार्थ परक सार्थक सृजन।
आभारी हूं आपका।
Deleteहम नहीं जानते
ReplyDeleteकल के पहले आज को हम दांव पर लगा चुके हैं////👌👌👌
जी संदीप जी, मिटने की कगार पर खड़ा व्यक्ति इस भयावह् स्थिति को अनदेखा कर अपने क्षणिक आनन्द में आकन्ठ लीन है।काश! इस प्रश्नों के उत्तर दे सके कोई।झझ्कोरती सच्चाई को बहुत ही संवेदनशीलता से लिखा है आपने।
आभारी हूं आपका।
ReplyDeleteसूली पर चढ़ चुके हैं
ReplyDeleteहमारी नदियां, तालाब, बावड़ियां, कुएं
हमें
पत्थर का सूखा सा जहां चाहिए
वह अवश्य मिलेगा
खुश हो जाईए हम मिटने की ओर अग्रसर हैं।
.. प्रकृति और पर्यावरण पर गहन चिंतन है आपका संदीप जी । बहुत ही विचारणीय विषय ।
आभारी हूं आपका
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