सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसा
ठंड में फुटपाथ पर
सोया आदमी
अपने हिस्से की रजाई
खींचकर
पूरी रात
अपने शरीर से बुदबुदाता है
सुबह तक
अपने आप को एक सच से
जूझते हुए बिता देता है
सवालों की अंगीठी
को महसूस कर
सच भूंजता है
और
हर सर्द रात
अधूरी नींद सो जाता है।
सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसे भीड़ में
फटे लत्ते से लिपटी
स्त्री
अपने को छिपाती है
और
घूरती नज़रों से
अपने को बचाती है
तब
सवाल पैरों में उलझते हैं
और सच ठोकर खाकर
दूर छिटक जाता है।
वह घूरती नज़रों में
सच देखती है
और
उसे नज़रें झुकाकर
पी जाती है।
सच ठीक वैसा ही है
जैसे स्कूल के बाहर
अधनंगे बच्चे
दीवार पर
कोयले से उकेर देते हैं
जिंदगी की तस्वीर।
सच
हां सच
छप्पर पर सुखा दिया जाता है
सीले बिस्तर के बीच छिपाकर।
सच
अब मन के किसी
अंधेरे कोने में
विक्षिप्त बालक सा
सहमा बैठा रहता है
कि
कहीं कोई
उसे छू न ले
क्योंकि
वह अक्सर बिखर जाता है
बेहद कमजोर हो गया है
उसका शरीर।
सच तो सच होता है पर सच तो यही है कि सच सदैव संघर्षरत रहा है सच का अस्तित्व को सच करने के लिए।
ReplyDeleteसादर प्रणाम सर।
आभार आपका
Deleteवाह!बेहतरीन!
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteमार्मिक रचना ! मानव जब हृदयहीन हो जाता है, सच तभी कमजोर होता है
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteसुंदर अंक
ReplyDeleteआभार
सादर
आभार
ReplyDeleteबहुत ही मर्मान्तक उदाहरण दिए हैं आपने संदीप जी |ये शोषित जन तो सदैव से ही डरते रहें समाज के दंबग आततातियों से, जिन्होंने अपने तेज कदमों से कुचलने में उन्हें रती भर भी देर ना की |
ReplyDeleteआभारी हूं आपका
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