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Wednesday, November 23, 2022

सच से जूझते हुए


सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसा
ठंड में फुटपाथ पर
सोया आदमी
अपने हिस्से की रजाई
खींचकर
पूरी रात
अपने शरीर से बुदबुदाता है
सुबह तक
अपने आप को एक सच से
जूझते हुए बिता देता है
सवालों की अंगीठी
को महसूस कर
सच भूंजता है
और
हर सर्द रात
अधूरी नींद सो जाता है।
सच
अब ठीक वैसा ही है
जैसे भीड़ में
फटे लत्ते से लिपटी
स्त्री
अपने को छिपाती है
और
घूरती नज़रों से
अपने को बचाती है
तब
सवाल पैरों में उलझते हैं
और सच ठोकर खाकर
दूर छिटक जाता है।
वह घूरती नज़रों में
सच देखती है
और
उसे नज़रें झुकाकर
पी जाती है।
सच ठीक वैसा ही है
जैसे स्कूल के बाहर
अधनंगे बच्चे
दीवार पर
कोयले से उकेर देते हैं
जिंदगी की तस्वीर।
सच
हां सच
छप्पर पर सुखा दिया जाता है
सीले बिस्तर के बीच छिपाकर।
सच
अब मन के किसी
अंधेरे कोने में
विक्षिप्त बालक सा
सहमा बैठा रहता है
कि
कहीं कोई
उसे छू न ले
क्योंकि
वह अक्सर बिखर जाता है
बेहद कमजोर हो गया है
उसका शरीर।


 

Sunday, October 30, 2022

प्रकृति


एक छोटी कविता...

एक सुबह
हम जागे
और 
प्रकृति 
निखर उठी।


 

Monday, July 25, 2022

सांझ होने पर


नारंगी जिद लिए 

सूरज आया 

अबकी मेरे देस...। 

अबकी 

महुआ तुम्हारे बदन से महकेगा, 

सुनहरी चादर 

सांझ होने पर 

उसे लपेट सूरज

अपने सिराहने  रख 

सो जाएगा 

सदी के किसी सूनसान गांव में 

किसी जिंदा कुएं की 

मुंडेर पर सटकर। 

सुबह 

उसी चादर को झाड़कर 

आसमान को पहना देगा, 

तुम उस सुबह का इंतज़ार करो, 

तब कुछ 

सुनहरा सा वक्त में बीनकर टांक दूंगा 

घर के दालान में 

लगे नीम पर, 

हम नीम की 

उम्मीद वाली छांव में मुस्कुराएं...

 और 

तब सूर्य भी कभी 

सुस्ताने ठहर जाएगा 

वहीं किसी झूलती शाख पर...।

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...