हर सुबह कोई उम्मीद
मन में कहीं
अंकुरित होती है
दोपहर तक
उम्मीद का पौधा
उलझनों और घुटन के बीच
अपने आप को बचाता है
सांझ होते ही
उम्मीद उस पौधे के साथ मुरझाकर
सूख जाती है।
देर रात
स्याह अंधेरा
सूखी लटकी, हवा में डोलती
उम्मीद की वो पत्तियां
कितने सवाल दबाए
अपनी पथराई आंखों से
देखती रहती हैं।
रात से सुबह का वह समय
दोबारा मन के ठहराव में कहीं
ओस को पाता है
उस उम्मीद के पौधे को
दोबारा सींचता है
सुबह फिर
पौधा नई उम्मीद के साथ
अंकुरित हो उठता है
इस उम्मीद से
वह खौफनाक रात नहीं आएगी आज।
नहीं
नहीं आएगी।