मन में
कहीं
खिली हो तुम।
मन की
दीवारों पर
तुम्हारी मुस्कान
और
हमारा भरोसा
दोनों
उभरे हैं।
तुम कम बोलती हो
शब्द
ये शिकायत करते हैं
अक्सर।
तुम कहती हो
मैं
पढ़ लेता हूँ
तुम्हें
अक्सर तुमसे पहले।
ये जो
हम हैं
ये
जो
हमारी नेह गंध है
ये
कहीं
हमारे शब्दों का
एक ग्रंथ है
जो
तुम पढ़ जाती हो
एक पल में
हजारों बार
और में
जी लेता हूँ
तुम्हें
शब्दों के पार...।
आओ
छूकर देखते हैं
दीवार
जहाँ
अक्सर
हम रहते हैं
शब्दों के व्याकरण
के बीच
कठिन
और
सहजता
के परे
किसी बच्चे के
हिज्जे वाले
सबक के बीच...।