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Saturday, October 7, 2023

आदमी की पीठ पर

 खरापन इस दौर में

एकांकी हो जाने का फार्मूला है

सच 

और

सच के समान कुछ भी

यहां हमेशा 

नंगा ही नजर आएगा। 

फटेहाल सच

और

भयभीत आदमी

एक सा नजर आता है।

आदमी की पीठ पर

आदमीयत है

और पर

हजार सवाल। 

भयभीत आदमी हर पल 

हो रहा है नंगा।

नग्नता 

इस दौर में 

खुलेपन का तर्क है। 

तर्क और अर्थ के बीच

आम आदमी

खोज रहा है 

अपने आप को

उस नग्नता भरे माहौल में। 

एक दिन

पन्नों पर केवल 

नग्नता होगी

तर्कों की पीठ पर 

बैठ 

भयभीत और भ्रमित सी। 

तब

आम आदमी

नौंच रहा होगा उन तर्कों के पीछे 

छिपी नपुंसकता को

छलनी-छलनी हो जाने तक। 

आम आदमी

कई जगहों से फटा हुआ है

उधड़ा सा

अकेला 

और 

गुस्सैल। 


ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...