आदमी
सच
को खोज रहा है
सत्ता रथ
के
पहिये
के नीचे
भिंची मिट्टी में।
सच
अब बुहार दिया जाता है
तूफान में
बिखरे
आंगन के
पत्तों
की तरह।
सच
अब झूठ की
तपिश में
पिघलती हुई
आईसक्रीम है
जो
पल भर में
गायब हो जाता है
नजरों से।
सच
गूंगी बांसुरी का शोर है।
सच
चीखते
चेहरों की बदहवासी है।
सच
अब गूंगा भी है
और
बेबस भी।
सच
मोमबत्तियों
की
क्षणिक
आवेग अवस्था है
और
सच
वो जो
उम्रदराज़ होने तक
अपने आप को
साबित करने
लड़ता रहे
अपनी महाभारत...।
सच
क्या करेंगे खोजकर
हमें भी
वो
क्षणिक ही तो जानना है
किसी
मोर्चे के अवसर
के समान।
सच
खुद चीत्कार कर
रहा है
कैसे
कह सकते हैं
हमने उसकी
आहट नहीं सुनी।
सच
कुछ दिनों
में
शर्ट
पर
लगाया जाने वाला
बैच होगा
लेमिनेशन
से सुरक्षित
और
हमारे
व्यक्तित्व को
निखारता सा...।
चलो
सच में
खोजते हैं
कोई कारोबार...।
सच को कई परिदृश्य में खोजती अनोखी रचना, पर सच एक अंधेरे कोने में सिमट गया और दिखाई नहीं देता ,सार्थक रचना ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी। सच पर लिखने का सच्चा प्रयास कर रहा हूं।
ReplyDelete