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Monday, March 22, 2021

सच गूंगी बांसुरी का शोर है


 आदमी 
सच 
को खोज रहा है
सत्ता रथ
के 
पहिये
के नीचे
भिंची मिट्टी में।
सच 
अब बुहार दिया जाता है
तूफान में
बिखरे 
आंगन के 
पत्तों 
की तरह।
सच 
अब झूठ की 
तपिश में
पिघलती हुई 
आईसक्रीम है
जो
पल भर में
गायब हो जाता है 
नजरों से।
सच 
गूंगी बांसुरी का शोर है।
सच 
चीखते 
चेहरों की बदहवासी है।
सच 
अब गूंगा भी है
और 
बेबस भी।
सच 
मोमबत्तियों 
की 
क्षणिक 
आवेग अवस्था है
और 
सच 
वो जो 
उम्रदराज़ होने तक
अपने आप को 
साबित करने
लड़ता रहे
अपनी महाभारत...।
सच 
क्या करेंगे खोजकर
हमें भी 
वो 
क्षणिक ही तो जानना है
किसी 
मोर्चे के अवसर 
के समान।
सच 
खुद चीत्कार कर 
रहा है
कैसे 
कह सकते हैं
हमने उसकी 
आहट नहीं सुनी।
सच 
कुछ दिनों 
में
शर्ट 
पर 
लगाया जाने वाला 
बैच होगा
लेमिनेशन
से सुरक्षित
और 
हमारे 
व्यक्तित्व को 
निखारता सा...। 
चलो 
सच में 
खोजते हैं
कोई कारोबार...।

Saturday, March 20, 2021

उबला सच उछाल दिया जाता है


 

चीत्कार

और 

रुदन में

एक अनुबंध होता है।

रुदन 

जब 

मौन हो जाए

वो 

बहने लगे 

जख्मों 

के अधपके हिस्सों से।

दर्द असहनीय हो जाए

तब 

वो 

चीत्कार 

हो जाया करता है।

इन दिनों 

चीत्कार

गूंज रहा है

कहीं 

कोई शोर है

कहीं

मन अंदर से 

सुबकना चाहता है सच।

सच पर 

बहस से पहले 

अब 

सच 

को 

क्रोध के जंगल में

बहस के 

पत्थरों के बीच

उबलना होता है

बहस का 

जंगल

कायदों

की ईंटों

को 

सिराहने 

रख 

सोता है

सच के उबलने तक।

उबला सच

उछाल दिया जाता है

बेकायदा 

शहरों की

बेतरतीब गलियों में

चीखती 

आंखों की ओर।

सच 

का उबाल

और 

उबला सच

दोनों में 

अंतर है। 

समाज 

नीतियों की प्रसव पीड़ा में

कराहते 

शरीर का 

खांसता हुआ 

हलफनामा है...।

सच

किसी

दुकान पर

पान के बीड़े में

रखी गई 

गुलेरी सा

परोसा जाता है।

लोग 

अब नीम हो रहे हैं...।

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...