आदमी
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
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सोमवार, 22 मार्च 2021
सच गूंगी बांसुरी का शोर है
आदमी

शनिवार, 20 मार्च 2021
उबला सच उछाल दिया जाता है
चीत्कार
और
रुदन में
एक अनुबंध होता है।
रुदन
जब
मौन हो जाए
वो
बहने लगे
जख्मों
के अधपके हिस्सों से।
दर्द असहनीय हो जाए
तब
वो
चीत्कार
हो जाया करता है।
इन दिनों
चीत्कार
गूंज रहा है
कहीं
कोई शोर है
कहीं
मन अंदर से
सुबकना चाहता है सच।
सच पर
बहस से पहले
अब
सच
को
क्रोध के जंगल में
बहस के
पत्थरों के बीच
उबलना होता है
बहस का
जंगल
कायदों
की ईंटों
को
सिराहने
रख
सोता है
सच के उबलने तक।
उबला सच
उछाल दिया जाता है
बेकायदा
शहरों की
बेतरतीब गलियों में
चीखती
आंखों की ओर।
सच
का उबाल
और
उबला सच
दोनों में
अंतर है।
समाज
नीतियों की प्रसव पीड़ा में
कराहते
शरीर का
खांसता हुआ
हलफनामा है...।
सच
किसी
दुकान पर
पान के बीड़े में
रखी गई
गुलेरी सा
परोसा जाता है।
लोग
अब नीम हो रहे हैं...।

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