बाजार
में फिरकनी
और
फिरकनी का बाजार।
आदमी
जो बेच रहा है
वो
फिरकनी में बाजार खोज रहा है
बाजार
फिरकनी के पीछे के रंग
और
आदमी
खोज रहा है
फिरकनी के पीछे का आदमी।
कौन
खोया है
कौन
खोज रहा है
मैं इतना ही जान पाया
कि फिरकनी
उस थके आदमी के कांधे पर
झूमने के अभिनय
की विवशता है।
इतना जान पाया
कि
फिरकनी
तब मन से
घूमती और झूमती थी
जब मां
गोद में बैठाकर
मेरे आंसु पोंछ दिया करती थी
और
थमाती थी सफेद फिरकनी
जो
उसके प्रेम के चटख रंगों
वाली होती थी।
अब इस दौर में
थके
कांधे वाला आदमी
फिरकनी को
देख
जी रहा है
पेट भर रहा है।
थकी फिरकनी
रात थककर
सो जाती है।
पूरा दिन घूमना और थके आदमी की
पीठ पर लदे रहने
का आत्मबोध
उसके पैर ठिठकने पर
मजबूर कर देता है।
आदमी
फिरकनी
और
बचपन
सबकुछ खो गए हैं
केवल बाजार है
नजर न आने वाला
जार-जार करता बाजार।
बाज़ार,आदमी और फिरकनी अद्भुत रचना।
ReplyDeleteविचारों की गहनता सराहनीय है।
प्रणाम सर
सादर।
बहुत आभारी हूं आपका श्वेता जी। आपकी टिप्पणी में हमेशा गहराई होती है...।
ReplyDeleteबहुत सुंदर.. फिरकनी और इंसान.. आज के दौर में सब कुछ बाजारू हो गया है.. भावनात्मक वर्णन..
ReplyDeleteबहुत आभार जिज्ञासा जी...।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज मंगलवार 9 मार्च 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
बहुत आभार आपका....
Deleteआज आदमी बाज़ार के हाथों फिरकनी बना हुआ है ।
ReplyDeleteसमझ ही नहीं पाता कि उसको इस्तेमाल किया जा रहा है ।
विचारणीय रचना
बहुत आभार आपका संगीता जी...
Deleteबहुत सुन्दर और हृदय स्पर्शी रचना।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका शास्त्री जी।
Deleteबयान-ए-हकीकत
ReplyDeleteफिरकी भी मुखौटा भी..
सादर..
जी बहुत आभार आपका यशोदा जी...। फिरकी सा आदमी अब केवल फिरकी खोज रहा है अपनी स्मृतियों में।
Deleteआदमी बाजार है, बाजार आदमी। अच्छी रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteआज के जीवन का कटुसत्य उकेरती रचना , बढ़िया !
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteजी बहुत आभार...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सटीक रचना |
ReplyDeleteजी बहुत आभार...
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