उम्रदराज जीत
इतिहास लिखती है
थरथराते हाथों का दोबारा जीवन पाना
झुर्रीदार चेहरे पर
पपड़ाए होठों को
दोबारा मुस्कुराते देखना
इस संसार का सर्वोत्तम
सुख कहा जा सकता है।
उम्र की थकन के बीच
एक
शरीर को यूं बीमार होकर
जब्त हो जाना
अकेले
और बोझिल से माहौल के बीच
कहीं
भयभीत करता है
उस दूसरे साथी को
जो
उसी तरह ही झुर्रीदार उम्र
जी रहा होता है
अकेले किसी और कमरे में।
सोचियेगा
जब ऐसे दो शरीर
किसी
ऐसी कठोर मंजिल को पार कर
होते हैं रूबरू
तब बहुत कुछ
चटखा हुआ दोबारा
जुड़ने लगता है।
उम्रदराज शरीर
प्रेम के
आध्यात्म को
जी रहे होते हैं
वे
थके हुए हाथ जब
दोबारा होते हैं
एक दूसरे का सहारा
तब
यकीन मानिये
दरारों से होकर
दर्द का हर कतरा
दूसरे की दरारों में समा जाता है।
प्रेम की इस गोधुलि बेला में
ईश्वर मुस्कुराता है
प्रकृति खिलखिलाती है
कहीं कोई
मयूर मन नाच उठता है।
आदमी का थका होना
और
आदमी का उम्रदराज होना
दोनों में
एक कहीं एक सख्त
सच है
थका आदमी उम्र नहीं जीता
हर पल केवल
थकता है
रिश्तों से, बातों से, जीवन से
और
उम्रदराज आदमी
जीता है उम्र और उसका हरेक दिन
अंतर तो है
उम्रदराज व्यक्ति
समुद्र की रेत पर खेलते
बच्चे
सा हो जाता है
जिसके पैरों पर नमक
असर नहीं डालता।
जीत की परिभाषा
में शब्द
हमेशा ही उम्रदराज होकर
मुस्कुराते हैं।
देखे हैं आपने भी
उम्रदराज
चेहरे
जो हाल ही
जीतकर मुस्कुरा रहे हैं
देखियेगा
कि वे
हमें
सिखा रहे हैं कि
प्रेम
से जीता जा सकता है
ये कालखंड
और
इसकी सनक को।
मानियेगा कि
प्रेम
को चेहरा पा जाने में
एक पूरी सदी लगती है
उम्रदराज होने पर ही
प्रेम नजर आता है
थके हुए शरीरों में
पूर्णता पाता है।
ठीक कहा आपने संदीप जी।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका जितेंद्र जी।
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (17-05-2021 ) को 'मैं नित्य-नियम से चलता हूँ' (चर्चा अंक 4068) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
जी बहुत आभार आपका रवींद्र जी।
Deleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत आभार शिवम जी।
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
ReplyDeleteउम्दा लेखन
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteबहुत सटीक बात कही---कि
ReplyDeleteउम्रदराज होने पर ही
प्रेम नजर आता है
थके हुए शरीरों में
पूर्णता पाता है। पूरा सार प्रेमभरे इस जीवन का
जी बहुत आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर, बिना प्रेम जीवन नीरस होता है
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Delete"...
ReplyDeleteतब
यकीन मानिये
दरारों से होकर
दर्द का हर कतरा
दूसरे की दरारों में समा जाता है।
...."
क्या लिखूं तारिफ में। 'नि:शब्द' लिखकर यहाँ से जा भी नहीं सकता।
हाँ मैं माफी जरूर चाहूंगा कि आपकी केवल चार पंक्तियों को ही कॉमेंट बॉक्स में दर्शा पाया...बस इतना समझिएगा कि लिखने और पढने वाला की भावुकता की दरार एक दूसरे में समा गयी।
आपकी इस रचना की सारी पंक्तियाँ उम्रदराज है बल्कि कहूं कि एक-एक शब्द।
और क्या लिखूं...समझ नहीं आ रहा। बस यह रचना कई-कई बार पढ रहा हूं...बिल्कुल तसल्ली से। जितनी भी बार इसे पढ रहा हूं मन भारी हो जा रहा है।
आपका अभिनन्दन...अभिनन्दन...अभिनन्दन 🙏🙏🙏
बहुत आभार प्रकाश जी...आपको मेरी रचना पसंद आई। जीवन जब लिखवाने पर आता है तब शब्द भी देता है, भाव भी देता है और मनोभाव को छू लेने का हुनर भी। आपकी सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए आपका आभारी हूं।
Deleteजीवन से परिपूर्ण रचनाओं के संग्रह में से हर रोज एक सुंदर, अनुभवी कविता पढ़ने का अवसर देने के लिए संदीप जी आपका हार्दिक शुक्रिया ।
ReplyDeleteजिज्ञासा जी जब गला रुंधने लगे और शब्दों को सहेजने का साहस कम होता जाए तब यकीन मानिये कि आप अवश्य लिखेंगे। हम सभी साथियों का लेखन मां सरस्वती की कृपा है और सराहना का प्रतिफल है। आभारी हूं आपका।
Deleteथके हुए हाथ जब
ReplyDeleteदोबारा होते हैं
एक दूसरे का सहारा
तब
यकीन मानिये
दरारों से होकर
दर्द का हर कतरा
दूसरे की दरारों में समा जाता है।
हृदयस्पर्शी सृजन ।
मीना जी मन कहीं जब हारने और थकने की कगार पर जा बैठता है तब यकीन मानिये कि उसे वहीं से दोबारा उठकर चलना होता है, भागना होता है और कई योजन सफर करना होता है...बस यकी कविता है। आभार आपका।
Deleteउम्रदराज व्यक्ति \
ReplyDeleteसमुद्र की रेत पर खेलते
बच्चे
सा हो जाता है
वाह ! बहुत सही कहा है आपने, अब उनके लिए कोई कशमकश नहीं बची, अब तो हर दिन बल्कि हर घड़ी परमात्मा का उपहार है, मेरे पिताजी नब्बे वर्ष के हो गए हैं पर हर दिन उसी उत्साह से लिखते-पढ़ते हैं, गीत सुनते हैं जैसे कोई बालक
जी बहुत आभारी हूं आपका अनीता जी
Deleteअत्यंत प्रभावी कविता...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका...।
Delete