हमें
तय करना होगा
हमें
धरा पर
हरियाली चाहिए
या
बेतुके नियमों की
कंटीली बागड़।
हरेपन की विचारधारा
को
केवल
जमीन चाहिए।
नियमों
में
लिपटी
कागजों में
सड़ांध मारती
बेतुकी
योजनाओं का
दिखावा
एक दिन
प्रकृति को
अपाहिज बना जाएगा।
हमें
जिद करनी चाहिए
हरियाली की
हमें
तय करनी होगी
जन के मन की
आचार संहिता।
हमें
खोलने होंगी
स्वार्थ की जिद्दी गांठें
जिनमें
प्रकृति
हजार बार
मरती है।
हमें
खोलने होंगे
अपने
घर
और
दिल
जहां
धूप, बारिश और हवा
बेझिझक
दाखिल हो सके।
सोचिएगा
हरियाली
चाहिए
या
सनकी सा सूखापन।
केवल खामोश रहने से
भविष्य
मौन नहीं हो जाएगा
वह चीखेगा..
हमारी पीढ़ियां
बहरी हो जाएंगी...।
सीधा सटीक असरदार लेखन ।
ReplyDeleteकेवल खामोश रहने से
भविष्य
मौन नहीं हो जाएगा
वह चीखेगा..
हमारी पीढ़ियां
बहरी हो जाएंगी...।
सही कहा आपने हमें हरियाली चाहिए सच्ची वाली धरा पर कागजों पर नहीं ।
सुंदर, उपयोगी, शाश्वत आह्वान।
आभारी हूं आपका। आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया मुझे बेहतर करने का संबल प्रदान करती है।
ReplyDeleteप्रिय संदीप जी , निरंकुश सत्ता और व्यवस्था ने आम आदमी को ये सोचने का अधिकार कहाँ दिया है कि उसकी प्रकृति के बचाव और रख रखाव में भागीदारी हो | यदि एसा होता तो हरसूद का अस्तित्व ना मिटा होता | गंगा का प्रवाह बाधित ना होता | अनेक शहर, गाँव बाँधों के नाम पर जलमग्न ना होते | आने वाली भयावह स्थितियों के बारे में सोचकर डर लगता है | आने वाली पीढियाँ कोसेगीं हमारी पीढ़ी को |
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका इस गहन प्रतिक्रिया के लिए।
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ReplyDeleteहमें
खोलने होंगे
अपने
घर
और
दिल
जहां
धूप, बारिश और हवा
बेझिझक
दाखिल हो सके।...जो समय चल रहा है, उसमे आपकी यह कविता बहुत ही सार्थक हो जाती है,आखिर इंसान अपनी मूल जरूरतों को क्यों नहीं समझता,वो तो अंधा होकर प्रकृति का क्षरण करता जा रहा है,काश कि उसकी आंखें खुलें।
जी बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी। वाकई प्रकृति को लेकर हमें बेहद गहन हो जाना चाहिए समय रहते...। बहुत सोचने से अधिक जरुरी है कि बहुत अधिक कार्य किया जाए। आपकी गहन प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूं।
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