Followers

Saturday, September 18, 2021

हम सच देखेंगे, सच ही कहेंगे

हिंदी पर

लिखता हूं तो 

अपने आप को अपराधी पाता हूं। 

बच्चे जिन्हें 

जीने के लिए

अंग्रेजी का मुखौटा चाहिए था

मैंने दे दिया।

उन्होंने हिंदी 

समझी नहीं, जानी नहीं

और मांगी भी नहीं।

मैं

सोचता रहा 

स्कूल से लौटने पर एक उम्र बाद

समझा दूंगा उन्हें हिंदी

और

समझा दूंगा 

हिंदी के शब्दों का मर्म।

देख रहा हूं

उम्र बीत रही है

और 

मैं इंतजार कर रहा हूं 

बच्चों के लौटने का

देख रहा हूं

बच्चे अंग्रेजी में लय पा चुके हैं

और 

हिंदी में झिझक।

देखता हूं वह मुखौटा ही अब

चेहरा है। 

मैं

अपने देश में

हिंदी भावावेश के बीच

अंग्रेजी को पनपता देखता रहा 

हिंदी 

की पीठ

और खुरदुरी सी हो गई

क्योंकि

मजबूरी में ही सही

अगली पीढ़ी को हमने ही  

अंग्रेजियत की ओर धकेला है।

मैं देखता रहा

अंदर ही अंदर

भिंचता रहा

कराहता रहा

अब भी जब बच्चे 

अंग्रेजी में बोलते हैं

और हिंदी पर हो जाते है खामोश

तब एक आत्मग्लानि अवश्य होती है

कि

हमारी ऊंगली थामे

चल रही

हिंदी को

हमने ही कहीं 

झटककर अपने आप से दूर कर दिया।

अब यह आत्मालाप मेरे अलावा 

कोई सुनना नहीं चाहेगा

संभव है

हममें से हरेक

इस अलाप को रोज जी रहा हो।

मेरी कराह

बच्चे महसूस कर रहे हैं

लेकिन

यकीन मानिये मैं 

ये 

नहीं चाहता था 

वे अंग्रेजी न सीखें

लेकिन मैं 

यह कतई नहीं चाहता था

कि हिंदी को बिसरा दें।

जानता हूं

एक बाजार है जो उन्हें खींच रहा है

मुझसे

और

हमारी हिंदी से

दूर

अपनी ओर। 

सोचता हूं

आज

हिंदी

हर घर में

किसी असहाय 

वृद्धा सी

इंतजार में है

कोई तो 

उसे उंगली 

पकड़ धूप तक सैर करवा दे। 

हिंदी सूख रही है

कहीं

हमारी नस्लों में

हिंदी में कहीं सीलन है

क्योंकि

वह अकेली 

एकांकी है अपने देश में।

मैं देख रहा हूं

हमने अंग्रेजी को 

मजबूरी

और फिर

सबसे जरुरी बना दिया है

काश

श्वास ले पाती हिंदी

हमारी अगली 

पीढ़ियों तक। 

उम्मीद है

हम सच देखेंगे

और सच ही कहेंगे

क्योंकि

हिंदी 

को सहानुभूति की नहीं

मन से

स्वीकाने की जरूरत है।

15 comments:

  1. हम सभी अंग्रेजी की बीमारी से पीड़ित है, सत्य का आईना दिखाती यथार्थपूर्ण रचना ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका जिज्ञासा जी।

      Delete
  2. सत्य को कहती सुंदर और विचारणीय रचना ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका संगीता जी।

      Delete
  3. आपकी लिखी रचना सोमवार. 20 सितंबर 2021 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका संगीता जी। मेरी रचना को शामिल करने के लिए साधुवाद।

      Delete
  4. हर मध्यमवर्गीय भारतीयों का आत्मावलोकन को शब्द दे दिए आपने। इस ईमानदार स्वीकारोक्ति के साथ आवश्यकता है हिंदी की समृद्ध संस्कृति की व्यवहारिक शिक्षा देने भी हमारी नन्हीं पीढ़ियों को।
    भावपूर्ण सृजन।
    सादर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका श्वेता जी। मुझे लगता है कि हम हिंदी के प्रति जब तक ईमानदार नहीं होंगे तब तक सुधार का कोई अध्याय आरंभ नहीं होगा। आभार आपका।

      Delete
  5. Replies
    1. आभार आपका आदरणीय सुशील जी।

      Delete
  6. कुछ सत्य ऐसा होता है कि गले में ही फँसा रहता है जिससे केवल दुःख होता है । यही हाल है हमारा ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका आदरणीय अमृता जी।

      Delete
  7. वाह…सत्य को उजागर करती कविता !

    ReplyDelete
  8. सही कहा आपने लगा नहीं था कि अंग्रेजी पढते हुए बच्चे हिन्दी भाषी परिवार के साथ रहकर भी हिन्दी से यूँ दूर हो जायेंगे.... हिन्दी में कुछ दिखा तो कहेंगे आप ही पढ़ो हिन्दी में है...अंग्रेजी मजबूरी की जगह जरूरी हो गयी हम हिन्दी भाषी माँ-बाप के लिए भी..आखिर बच्चों से बतियाना है तो हम ही अंग्रेजी सीखे उन्हें हिन्दी सीखने की ना फुरसत है न जरूरत।
    आज का कटु सत्य बयां करती लाजवाब रचना।

    ReplyDelete
  9. हिंदी को सहानुभूति की नहीं मन से स्वीकाने की जरूरत है। अंतिम सत्य यही है शर्मा जी।

    ReplyDelete

कागज की नाव

कागज की नाव इस बार रखी ही रह गई किताब के पन्नों के भीतर अबकी बारिश की जगह बादल आए और आ गई अंजाने ही आंधी। बच्चे ने नाव सहेजकर रख दी उस पर अग...