कभी
जब उदास होता हूं
लौट जाता हूं
बचपन की राह
यादों की उंगली थामकर।
कितने खरे थे
जब
शब्दों में तुतलाहट थी
बेशक कहना नहीं आता था
लेकिन
छिपाना भी नहीं आता था।
कितनी खुशियां थीं
कपड़ों में रंग खोजते थे
और रंगों में जीवन।
अब
जीवन में रंगों को खोजते हैं
बहुत धुंधला सा गया है
खुशी का रंग
अपनेपन का रंग
फीका सा है रंगों का जायका
और
अधमिटी सी है
रंगों में खुशियों को खोजने की
इबारत।
दोस्त थे
जो अब तक यादों में
यदाकदा ही चले आते हैं
और
घूम आता हूं उनके साथ
पुराने बगीचे की मुंडेर तक
देर सांझ तक
खड़ा रहता हूं
उनके साथ।
सूर्यास्त देखता हूं अब भी
लेकिन
कितना कुछ अस्त हो जाता है
हर रोज
मेरे अंदर भी।
तब जेबें अक्सर
फटी रहती थीं
लेकिन न जाने
खुशियां कहां अटकी रह जाती थीं
उन फटी जेबों के
उधड़े से धागों में।
देखता हूं
अब जेब मजबूत है, सिली हुई
लेकिन
सीली सी है
कभी सुख नहीं दे पाई
वह बचपन वाला।
पहले बैठते थे
परिवार में
मां के पास रसोई में
अंगीठी की आंच तापते हुए।
पिता के पास तखत पर
सुनते थे
उन्हें कोई भजन गुनगुनाते हुए।
सोचता हूं कैसा वक्त था
कैसे लोग थे
कैसे हम थे
कैसी खुशियां थीं
जो मुटठी भर थीं
लेकिन
कभी खत्म नहीं हुईं।
तब साइकिल थी
अक्सर चेन उतर जाया करती थी
लेकिन
आज तक भाग रही है मन के किसी रास्ते पर।
पहले रेडियो था
जो पूरे परिवार के बीच बजता था
अब तक
उसके गीत
हमारी जुबां पर हैं
और आज
कितना शोर है
और कितनी भागमभाग।
कहां थमेंगे
कैसे और क्यों
और
कितना भागेंगे हम।
कोई मंजिल है...?
अकेले
कभी यूं ही मुस्कुराता हूं
देखता हूं
घर में कुछ बो पाया हूं
जो महसूस कर लेता है
और कहता है
बचपन की सैर पर हैं आप
और मैं
लौट आता हूं
आज में
उस खूबसूरत कल से
दोबारा लौटने का वादा कर।
लाजवाब संदीप जी! ये सत्य कितनों का है पर कहाँ कोई इतनी शिद्दत से कह पाता है, लगता है शब्द शब्द मेरा है अलिखित सा।
ReplyDeleteगहन संवेदना समेटे हुए भावात्मक सृजन।
सादर।
जी बहुत आभार आपका। इस नेह से परिपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए...ये मुझे और जिम्मेदार बनाने का कार्य करेगी।
Deleteन जाने कितनी यादें सिमटी होती हैं मन में । ये बचपन की यादें हमेशा लौटाती हैं हमें अपना बचपन । वाकई आज हम कहाँ खड़े हैं , कितना सटीक लिखा है । बहुत खूब ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका। आपकी प्रतिक्रिया ने मुझे साहस प्रदान किया और संबल भी।
Deleteआपका दिल से शुक्रिया बचपन की गलियों में सैर करवाने के लिए... जहाँ कम में भी खुशियों ज्यादा होती थी।
ReplyDeleteदुःखद है, आज की पीढ़ी के बच्चें तो उन खुशियों से भी महरूम है...
वो तो पैदा होते ही बड़े हो जा रहें हैं.... खुशकिस्मत थे हम
बहुत बहुत धन्यवाद आपको इतनी प्यारी रचना को साझा करने के लिए,सादर
जी बहुत बहुत आभार आपका। सच कहूं हम यदि केवल वैचारिक तौर पर भी बचपन में लौट जाएं तब भी हमें बहुत गहरा अनुभव होता है। आपकी नेह भरी प्रतिक्रिया के लिए मन से आभारी हूं।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-9-21) को "बचपन की सैर पर हैं आप"(चर्चा अंक-4194) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
जी बहुत बहुत आभारी हूं आपका कामिनी जी। आपने मेरी रचना को मान दिया और उसका चयन किया। साधुवाद
ReplyDeleteपढ़कर ऐसे लगा जैसे बीता बचपन फिर वापस लौट आया हो
ReplyDeleteसच बहुत याद आता है बचपन जैसे-जैसे उम्र ढलती है
बहुत ही सुन्दर मर्मस्पर्शी
बचपन की याद दिलाती बेजोड़ रचना।
ReplyDeleteआज ऐसी सैर कौन नहीं करना चाहता शर्मा जी सिवाय उनके जो सफलता के नशे में आकंठ डूबे हों? आपकी यह बात हम में से बहुत-से लोगों के दिल की बात है। मैंने कभी अपने बच्चों से उनका बचपन नहीं छीनना चाहा क्योंकि मैं जानता हूँ कि जीवन भर की मधुर स्मृतियां बचपन ही प्रत्येक मनुष्य को देकर जा सकता है।
ReplyDeleteवाह! क्या रचना है!
ReplyDeleteजितनी तारीफ की जाये कम ही है!