हिंदी पर
लिखता हूं तो
अपने आप को अपराधी पाता हूं।
बच्चे जिन्हें
जीने के लिए
अंग्रेजी का मुखौटा चाहिए था
मैंने दे दिया।
उन्होंने हिंदी
समझी नहीं, जानी नहीं
और मांगी भी नहीं।
मैं
सोचता रहा
स्कूल से लौटने पर एक उम्र बाद
समझा दूंगा उन्हें हिंदी
और
समझा दूंगा
हिंदी के शब्दों का मर्म।
देख रहा हूं
उम्र बीत रही है
और
मैं इंतजार कर रहा हूं
बच्चों के लौटने का
देख रहा हूं
बच्चे अंग्रेजी में लय पा चुके हैं
और
हिंदी में झिझक।
देखता हूं वह मुखौटा ही अब
चेहरा है।
मैं
अपने देश में
हिंदी भावावेश के बीच
अंग्रेजी को पनपता देखता रहा
हिंदी
की पीठ
और खुरदुरी सी हो गई
क्योंकि
मजबूरी में ही सही
अगली पीढ़ी को हमने ही
अंग्रेजियत की ओर धकेला है।
मैं देखता रहा
अंदर ही अंदर
भिंचता रहा
कराहता रहा
अब भी जब बच्चे
अंग्रेजी में बोलते हैं
और हिंदी पर हो जाते है खामोश
तब एक आत्मग्लानि अवश्य होती है
कि
हमारी ऊंगली थामे
चल रही
हिंदी को
हमने ही कहीं
झटककर अपने आप से दूर कर दिया।
अब यह आत्मालाप मेरे अलावा
कोई सुनना नहीं चाहेगा
संभव है
हममें से हरेक
इस अलाप को रोज जी रहा हो।
मेरी कराह
बच्चे महसूस कर रहे हैं
लेकिन
यकीन मानिये मैं
ये
नहीं चाहता था
वे अंग्रेजी न सीखें
लेकिन मैं
यह कतई नहीं चाहता था
कि हिंदी को बिसरा दें।
जानता हूं
एक बाजार है जो उन्हें खींच रहा है
मुझसे
और
हमारी हिंदी से
दूर
अपनी ओर।
सोचता हूं
आज
हिंदी
हर घर में
किसी असहाय
वृद्धा सी
इंतजार में है
कोई तो
उसे उंगली
पकड़ धूप तक सैर करवा दे।
हिंदी सूख रही है
कहीं
हमारी नस्लों में
हिंदी में कहीं सीलन है
क्योंकि
वह अकेली
एकांकी है अपने देश में।
मैं देख रहा हूं
हमने अंग्रेजी को
मजबूरी
और फिर
सबसे जरुरी बना दिया है
काश
श्वास ले पाती हिंदी
हमारी अगली
पीढ़ियों तक।
उम्मीद है
हम सच देखेंगे
और सच ही कहेंगे
क्योंकि
हिंदी
को सहानुभूति की नहीं
मन से
स्वीकाने की जरूरत है।