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Tuesday, November 15, 2022

इंसानों का ये अथाह महासागर

धरती
सीमित है
जल भी सीमित है
जंगल भी सीमित है
ताजी हवा भी अब सीमित है
बारिश भी सीमित है
फसल भी सीमित है
रोजगार भी सीमित है
उम्मीदें भी सीमित हैं
उम्र भी सीमित है
प्रकृति संरक्षण में हमारी भागीदारी भी सीमित है
फिर
हम क्यों असीमित हो रहे हैं
क्यों फैला रहे हैं
अपनी
काया
माया
और
ये बेसब्र सा जंगल।
आखिर जब कुछ नहीं होगा
तब
हम होंगे या नहीं होंगे
कोई फर्क नहीं होगा।
सोचिए कि
धरा पर केवल रहना ही नहीं है
हमें
खाना और पानी भी चाहिए।
सोचिएगा
हम
इंसानों का ये अथाह महासागर
निगलने को आतुर है
धरा के उस एक इंच हिस्से को भी
जहां उम्मीद जिंदा रहती है।

6 comments:

  1. धरा को आता है अपने को बचाना, वह तब भी थी जब नहीं था मानव, रहेगी जब मानव नहीं होगा

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  2. जीवनशैली में एक सकारातमक परिवर्तन, जहाँ आवश्यकता से अधिक संग्रह ना हो, उपभोक्तावाद और बाजारवाद पर लगाम लगे - यही इसका हल है।

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  3. यही एक बात है जिस पर इंसान कभी चिंतन नहीं करता | सीमित को कब तक भोगेगा और यदि ये सीमित भी ना रहे तो वह कहाँ का रहेगा , इस बात का उसे आभास तक नहीं |

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