वह
साठ बरस का व्यक्ति
हंसते हुए कह रहा था
कि
बाबूजी पुरवाई तो मर्दांना हवा है
उससे कोई दिक्कत नहीं
वह बीमार नहीं करेगी।
हां
पछुआ जो जनाना हवा है
उससे बचियेगा
वह बीमार कर देगी।
मैं सोचने लगा
जिसकी कोख से जन्म लिया
जिसने पूरी उम्र संवारा
जिसने
पीढ़ी को बढ़ाया
वही जनाना
विचारों में इतनी दर्दनाक इबारत क्यों है?
सोचता हूं
हमने कैसा समाज बनाया है
हवाओं को अपने स्वार्थ और जिद के अनुसार
नामों और सनक में बांट दिया है।
तभी तो पर्यावरण अधिक खराब है
और
सुधर नहीं रहा
क्योंकि केवल
बात प्राकृतिक पर्यावरण की नहीं
सामाजिक पर्यावरण की भी है।
सोचता हूं
भला कब तक नोंचते रहेंगे हम
अपनों को
सच को
और
मानवीयता को।
कब उतार फैंकेंगे हम
अपनी भोली शक्ल पर चिपटा रखे
बेशर्म विचारों को।
बदल दीजिए क्योंकि
प्रदूषण बहुत है।
व्वाहहहहहह , बेहतरीन
ReplyDeleteपुरुवा और पछुआ, गूढ़ ज्ञान
जी बहुत आभार आपका...।
Deleteबहुत गंभीर बात कही है आपने कविता में👍👍 जब तक वैचारिक प्रदूषण समाप्त नहीं होगा , चीज़ें नहीं बदलेंगी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteसाहब, बहुत बेहतरीन चोट किया आपने। बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteबहुत ही सुन्दर सार्थक समसामयिक रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteपवन देव, वायु देवता कहकर हम हवा को नमन करते हैं, पर उसे शहर की 'हवा लग गयी' कहकर कुदेवी भी बना देते हैं !!
ReplyDeleteजी बहुत आभार
Deleteसुन्दर... सार्थक आलेख!
ReplyDeleteजी बहुत आभार सर।
Deleteगूढ़ बात ! सोचने को मजबूर करते तथ्य।
ReplyDeleteसारगर्भित रचना।