मुझे थके चेहरों पर
गुस्सा
नहीं
गहन वैचारिक ठहराव
दिखता है।
विचारों का एक
गहरा शून्य
जिसमें
चीखें हैं
दर्द है
सूजी हुई आंखों का समाज है।
थके चेहरों पर
पसीने के साथ बहता है
अक्सर
उसका धैर्य।
घूरता नहीं
केवल अपने भीतर
ठहर जाता है
अक्सर।
सफेद अंगोछे में
कई छेद हैं
उसमें से
बारी बारी से झांक रही है
बेबसी
और
उन चेहरों पर ठहर चुका
गुस्सा।
जलता हुआ शरीर
तपता है
मन तपता है
विचार से खाली मन
और अधिक तपता है
सूख गया है आदमी
आदमी के अंदर
उसकी नस्ल की उम्मीद भी।
यह
दौर आदमी के दरकने पर
आदमी के मुस्कराने का भी है।
यह दौर
दरकते आदमी
का भूगोल कहा जाएगा।
मैं बचता हूं
ऐसे चेहरों को देखने से
क्योंकि वह
देखते ही चीखने लगते हैं
और
कहना चाहते हैं
अपने ठहरे गुस्से के पीछे का सच।
चीखते चेहरों के समाज का मौन
अक्सर
बेहद खौफनाक होता है।