कोई कविता
कहीं
जड़ से
अंकुरित होती है
जैसे
आदमी।
हां आदमी शब्दों
के बीच
भाव
होता हुआ
मात्राओं में ढलकर
कविता हो जाता है।
कविता
आदमी
की तमीज़
है
और
आदमी का
वैचारिक पहनावा भी।
आदमी से
झांकते हैं
कई
आदमी
हर आदमी
कविता नहीं होता
अलबत्ता
पढ़ा जाता है।
कविता
स्मृति में ठहर जाती है
आदमी
से झांकते आदमियों की
भीड़
स्मृति
को नहीं छूती
वे
झांकते आदमी
पूरे शब्द नहीं है
अलबत्ता हल्लंत हो सकते हैं।
आदमी,भाषा और प्रकृति
रिश्तों का
अनुबंध हैं
ठीक वैसे ही
जैसे
आदमी और उसके विचार।
आदमी से खर्च होते
कई
आदमियों
की भीड़
के क्षरण को
अंकुरण
में
परिभाषित
किया जा सकता है
ठीक
कविता के भाव की तरह।