Followers

Showing posts with label कविता आदमी स्मृति वैचारिक तमीज़. Show all posts
Showing posts with label कविता आदमी स्मृति वैचारिक तमीज़. Show all posts

Friday, May 7, 2021

हर आदमी कविता नहीं होता


 कोई कविता

कहीं

जड़ से 

अंकुरित होती है

जैसे

आदमी।

हां आदमी शब्दों

के बीच

भाव 

होता हुआ

मात्राओं में ढलकर

कविता हो जाता है।

कविता 

आदमी 

की तमीज़ 

है

और 

आदमी का

वैचारिक पहनावा भी।

आदमी से 

झांकते हैं 

कई

आदमी

हर आदमी 

कविता नहीं होता 

अलबत्ता 

पढ़ा जाता है। 

कविता 

स्मृति में ठहर जाती है

आदमी 

से झांकते आदमियों की 

भीड़

स्मृति

को नहीं छूती

वे 

झांकते आदमी

पूरे शब्द नहीं है

अलबत्ता हल्लंत हो सकते हैं।

आदमी,भाषा और प्रकृति

रिश्तों का

अनुबंध हैं

ठीक वैसे ही

जैसे

आदमी और उसके विचार।

आदमी से खर्च होते 

कई

आदमियों

की भीड़

के क्षरण को

अंकुरण

में 

परिभाषित 

किया जा सकता है

ठीक 

कविता के भाव की तरह।

कागज की नाव

कागज की नाव इस बार रखी ही रह गई किताब के पन्नों के भीतर अबकी बारिश की जगह बादल आए और आ गई अंजाने ही आंधी। बच्चे ने नाव सहेजकर रख दी उस पर अग...