अब भी चस्पा है
बचपन
और
मेरी अबोध उम्र के निशान।
नदी भी तब
अबोध हो जाया करती थी
बार-बार
मेरे पैरों में पानी के मोटे-मोटे छींटे मार
लहरों में खिलखिलाती थी।
किनारा कच्चा था
लेकिन
नदी से उसका रिश्ता
मजबूत था
कभी भी नदी ने
उस किनारे को पीछे नहीं धकेला
हर बार
उसे छूती हुई
गुजर जाती।
उस किनारे कहीं
नदी की रेत में
एक घरोंदा बनाया था
जो आज तक
है
मेरे मन, भाव, शब्दों और नदी के भरोसे में।
मेरे पदचिन्ह
नदी के मुहाने तक चस्पा हैं
उसके बाद नदी है
नदी है
और
मेरी आचार संहिता।