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Thursday, September 14, 2023

नमक होती जा रही है नदी

 तपिश के बाद

नदी की पीठ पर

फफोले हैं

और 

खरोंच के निशान

हर रात

खरोंची जाती है

देह 

की रेत 

रोज हटाकर 

खंगाला जाता है

गहरे तक.

हर रात 

ऩोंची गई नदी

सुबह दोबारा शांत बहने लगती है

अपने जख्मों में दोबारा

रेत भरती है.

नदी की आत्मा 

तक 

गहरे निशान हैं

छूकर देखिएगा

नदी रिश्तों में नमक होती जा रही है.

एक दिन 

खरोंची नदी 

पीठ के बल सो जाएगी 

हमेशा के लिए

तब तक हम 

सीमेंट से जम चुके होंगे

अपने भीतर पैर लटकाए.

Thursday, August 31, 2023

हजार दरकन, योजन सूखा



नदी

से रिश्ता

अब 

सूख गया है

या 

नदी के साथ

बारिश के दिनों वाले

मटमैले पानी के साथ

बहकर 

समुद्र के पानी में मिलकर

खारा हो गया है। 

नदी से रिश्ते में देखे जा सकते हैं

हजार दरकन

और

योजन सूखा। 

एक दिन 

रिश्ते के बेहतर होने की आस ढोती हुई नदी

समा जाएगी 

हमेशा के लिए पाताल में। 

नदी 

और

हमारे रिश्ते में

अब भी

उम्मीद की नमी है

चाहें तो 

बो लें कुछ अपनापन

रिश्ता

और बहुत सी नदी। 

Friday, August 25, 2023

हां नदी अंदर से नहीं पढ़ी गई

 


नदी

अंदर से जानी नहीं गई

केवल

सतही तौर पर देखी गई।

उसकी भीतरी हलचल

का कोई साझीदार नहीं है

केवल

जलचरों के।

नदी बहुत भीतर

कुछ निर्मल है

और

बहुत सी बेबस भी।

वह

उसकी आत्मा का नीर

उन जलचरों के लिए है

जो नदी के दर्द पर

उसकी कराह में शामिल होते हैं।

सतही पानी नदी की विवशता है

सतही बातों के बीच

नदी बहुत बेबस है।

वह सिमट रही है

प्रवाहित होते हुए भी

अपने भीतर

जलचरों को समेटते हुए

उसका आत्म नीर

घटता जा रहा है

और घटते जा रहे हैं

जलचर।

हां नदी अंदर से नहीं पढ़ी गई

केवल

सतही विकारों और किनारों को लिखा गया

उसके हर दिन के रुदन को

जलचरों को घटते निर्मल नीर को

बदबूदार सतह को ढोने की विवशता को

कहा पढ़ा जा सका।

नदी गहरे कहीं-कहीं

सहती है

कालिख सा बदबूदार पानी

जिससे जल का निर्मल भाव

नदी की आत्मा

और

जलचर मर जाते हैं।

क्या पढ़ पाए हैं हम

नदी को

उसके दर्द को

उसकी इच्छा को

उसके सिमटते भविष्य पर

क्या महसूस कर पाए हैं

उसके मौन को ?

नदी कहां पढ़ी गई

वह तो

केवल

उलीची गई

खूंदी गई

विचारों की बदबूदार साजिशों में।

कभी पढ़ो

तो पाओगे

किनारों पर गहरे

नदी के रुदन का नमक मिलेगा

जो हर रोज बढ़ रहा है

और

बढ़ रही है

हमारी और नदी के बीच

रिश्तों में खाई। 



ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...