चेहरों
का
अपना कोई
समाज नहीं होता।
चेहरे
समाज होकर
गढ़ते हैं
कोई
वाद।
चेहरों
के
मुखौटे
विद्रोही होते हैं
उनका अपना
समाज होता है।
चेहरे मुखौटे
ओढ़
सकते हैं
मुखौटे
चेहरे
को
ढांक लेते हैं
अपने हुनर से।
मुखौटों
का हुनर
सीख रहा है आदमी।
मुखौटों
वाला समाज
गढ़ रहा है
अपनी काया।
समाज और मुखौटों
के
बीच
कोई
अदद
सच है
जो
चेहरा हो जाया करता है।
चेहरे
मुखौटों के समाज
का
आधिपत्य स्वीकार
कर चुके हैं।
एक दिन
मुखौटों
के
पीछे खोजा जाएगा
असल चेहरा।
आपकी अभिव्यक्ति अच्छी और प्रभावी है आदरणीय संदीप जी लेकिन मेरा अपना तजुरबा तो यही कहता है कि मुखौटों का हुनर आदमी सीख नहीं रहा बल्कि सीख चुका है। और आज के हिन्दुस्तान की हक़ीक़त मुझे यही लगती है कि मुखौटों का नहीं तो मुखौटे लगाने वालों का तो बराबर एक समाज है जिससे उन लोगों को सावधान रहने की ज़रूरत है जो अपने चेहरों पे कोई मुखौटा नहीं लगाते।
ReplyDeleteवाकई बहुत अच्छी प्रतिक्रिया है आपकी जितेंद्र जी। मुखौटों की आवश्यकता सभ्य समाज में कतई नहीं है...। इस दौर में उन्हें सावधान रहने की आवश्यकता है जो मुखौटा नहीं लगा सकते। आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभार आपका अनुराधा जी।
Deleteकुछ ऐसा से ही मैंने भी कभी लिखा था इंसान केवल एक मुखौटा नहीं लगता ।
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण
जी बहुत आभार आपका
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२४-०४-२०२१) को 'मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे'(चर्चा अंक- ४०४६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी बहुत आभार
Deleteबिल्कुल सटीक लिखा है आपने संदीप जी, मुखौटा ओढ़े लोग समाज के हर कोने में मिल जाएंगे । बस उनसे सावधान रहने की जरूरत है । सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteसटीक! मुखोटे ही सत्य है, खुद आइना भी असली चेहरा भूल गया।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति।