एक दिन
केवल थके हुए शरीर होंगे
झुलस चुके
मन
विचार और मानवीयता लेकर।
बिलखते बच्चों को छांह
नहीं दे पाएंगे
चाहकर भी।
परछाईयों
की तुरपाई कर
नहीं
बना पाएंगे
हम
कोई वृक्ष।
हांफते शरीर
झुलसते बच्चों के सिर
ओढ़ा देंगे
परछाई की
आदमकद सच्चाई।
सूखी जमीन
तब नहीं पिघलेगी
हमारे आंसुओं से भी
क्योंकि
हमारे आंसू
में केवल दर्द का
नमक होगा
और
इतिहास गवाह है
नमक पाकर जमीन
बंजर हो जाया करती है।
वृक्षों को
देख लेने दीजिए
बच्चों को
कि
कोई कल
ऐसा भी आएगा
जब
जंगल
ठूंठों के रेगिस्तान होंगे
कुओं में
पानी की जगह
सूखी अस्थियां होंगी
बेजान परिंदों की।
हवा से उम्मीद भी
सूख जाएगी
क्योंकि
रेगिस्तान में
हवा
का कोई शरीर नहीं होता
मन नहीं होता
और आत्मा तो
कतई नहीं होती।
हमारी सभ्यता में
सब
यूं ही
छूटता जा रहा है पीछे
एक दिन
आदमी
और
जिंदगी की हरेक उम्मीद
छूट जाएगी बहुत पीछे
तब केवल
चीखता हुआ अतीत होगा
जो
मानव सभ्यता के मिट जाने पर
चीखेगा
और कहेगा
काश जाग जाते
समय पर
बच्चों के लिए
अपने लिए...।
एक वृक्ष की मौत
एक सदी की मौत है
ये
सबक समझ लीजिए
क्योंकि
बिना जीवन
सदी
बहुत खौफनाक लगेगी।
पेड़ो का महत्व बतलाती बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं ज्योति जी।
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25 -5-21) को "अब दया करो प्रभु सृष्टि पर" (चर्चा अंक 4076) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
जी बहुत आभार आपका कामिनी जी...
ReplyDeleteसंदेशपरक सुंदर रचना हेतु साधुवाद। ।।।।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका सिन्हा जी।
Deleteठीक कहा आपने।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका आदरणीय जितेंद्र जी।
ReplyDeleteजंगल
ReplyDeleteठूंठों के रेगिस्तान होंगे
कुओं में
पानी की जगह
सूखी अस्थियां होंगी
बेजान परिंदों की।..बहुत ही भावपूर्ण सार्थक दर्द उकेरा है आपने संदीप जी ।
आभार आपका जिज्ञासा जी...जब तक हमारे मन में प्रकृति के दर्द की तस्वीर नहीं उभरेगी, जब तक हम अंदर से बिलख न उठें तब तक प्रकृति के प्रति सचेत नहीं हो पाएंगे...। आभारी हूं आपका।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteप्रकृति को यदि मानव नहीं बचाएगा तो प्रकृति से पहले मानव ही नष्ट हो जायेगा
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका अनीता जी।
Deleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका अनुराधा जी।
Deleteबहुत ही सटीक एवं लाजवाब सृजन
ReplyDeleteप्रकृति के दोहन और वृक्ष के कटाव से पर्यावरण असन्तुलन के विषय में अगर हम इतना आगे तक सोचें जितना उक्त कृति में है आने वाले कल का सच तो शायद हम जाग जायें. प्रकृति के लिए नहीं तो अपने स्वार्थ के लिए ही सही...
बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।
बहुत आभार आपका सुधा जी आपकी गहन प्रतिक्रिया के लिए।
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