फ़ॉलोअर

शनिवार, 17 जुलाई 2021

आदमी के दरकने का दौर


 

मुझे थके चेहरों पर

गुस्सा 

नहीं

गहन वैचारिक ठहराव 

दिखता है।

विचारों का एक

गहरा शून्य

जिसमें

चीखें हैं

दर्द है

सूजी हुई आंखों का समाज है।

थके चेहरों पर

पसीने के साथ बहता है

अक्सर

उसका धैर्य।

घूरता नहीं

केवल अपने भीतर

ठहर जाता है

अक्सर।

सफेद अंगोछे में

कई छेद हैं

उसमें से

बारी बारी से झांक रही है

बेबसी

और

उन चेहरों पर ठहर चुका

गुस्सा।

जलता हुआ शरीर

तपता है

मन तपता है

विचार से खाली मन

और अधिक तपता है

सूख गया है आदमी

आदमी के अंदर 

उसकी नस्ल की उम्मीद भी

यह 

दौर आदमी के दरकने पर

आदमी के मुस्कराने का भी है।

यह दौर

दरकते आदमी

का भूगोल कहा जाएगा।

मैं बचता हूं

ऐसे चेहरों को देखने से

क्योंकि वह

देखते ही चीखने लगते हैं

और

कहना चाहते हैं

अपने ठहरे गुस्से के पीछे का सच।

चीखते चेहरों के समाज का मौन

अक्सर

बेहद खौफनाक होता है।


23 टिप्‍पणियां:

  1. एक मार्मिक विश्लेषण संदीप जी | व्यवस्था से उबा इंसान मौन के अलावा कर भी क्या सकता | थके आदमी की चिंतन शक्ति बहुत प्रखर होती है | सच है--
    चीखते चेहरों के समाज का मौन/अक्सर/बेहद खौफनाक होता है।///
    बहुत सही पढ़ा आपने इस मौन को | हार्दिक शुभकामनाएं|

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका इस गहन प्रतिक्रिया के लिए।

      हटाएं
  2. चीखते चेहरों के समाज का मौन

    अक्सर

    बेहद खौफनाक होता है।

    बेहद भयावह स्थिति को दर्शा रही है आपकी ये रचना ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका इस गहन प्रतिक्रिया के लिए।

      हटाएं
  3. थके चेहरों पर खिंची
    लकीर पढ़ने की कोशिश में
    अक्सर फूट पड़ा
    अंतर्मन का रूदन
    और
    चीख़ते चेहरे
    कह जाते हैं
    भय की परिभाषा
    इसलिए
    अब नज़रें नीची किये
    हाथ धरकर कानों में
    मैं करती हूँ
    आत्मविश्लेषण का ढ़ोग।
    -----
    आदरणीय सर
    आपका चिंतन अत्यंत
    भावपूर्ण एवं सराहनीय है।

    प्रणाम
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत आभारी हूँ आपका श्वेता जी...।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर संदर्भ उठाया है अपने अपनी इस रचना के माध्यम से,सच ही तो है,मौन जब मुखर होता है,तो दर्द के साथ आक्रोश भी फूट पड़ता है,सार्थक सृजन।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जिज्ञासा जी बहुत बहुत आभार आपका। मन की सुनो तो बहुत चीखें सुनाई देती हैं...।

      हटाएं
  6. देखते ही चीखने लगते हैं
    और
    कहना चाहते हैं
    अपने ठहरे गुस्से के पीछे का सच।
    चीखते चेहरों के समाज का मौन
    अक्सर
    बेहद खौफनाक होता है।
    सत्य पर आधारित बहुत ही उम्दा रचना!

    जवाब देंहटाएं
  7. प्रकृति के अंतर्मन की आवाज़ जैसे प्रतिध्वनित हो रही हो, जीवंत रचना मुग्ध करती है - - साधुवाद सह।

    जवाब देंहटाएं
  8. आभारी हूं आदरणीय रवींद्र जी। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत बहुत ही सुंदर सर मन को छूते भाव।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत बहुत आभार आपका अनीता जी।

    जवाब देंहटाएं

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...