मन आहत है
हमारी दुनिया को
बेपानी होता देख।
मन आहत है
हम पानी के अरसा पहले
सूख गए।
मन आहत है
कि धरती पर
संकट दीवारों पर चस्पा हो रहा है।
मन आहत है
हम तपती धरती पर
तल्लीन हैं
ओघड़ मस्ती में।
मन आहत है
बारी- बारी सूख रहे हैं परिंदे।
समझना होगा
सहेज लीजिए इन तस्वीरों को
कल
यही अहसास की सीलन
लिए
सहारा होंगी।
मैं सूखते समाज में
आहत परिंदों पर
मातम नहीं चाहता
पानी चाहता हूँ
उनके लिए
क्योंकि यकीन मानिए
मानव के अंत की शुरुआत
पक्षियों के अंत से होती है।
(फोटोग्राफ दिल्ली में मेट्रो के नीचे वाल पर बने आर्ट का है... आर्ट जिसने भी बनाया मैं उन्हें नमन करता हूँ... उन्होंने खरा सच दिखाया...चाहते तो नल से बूंदें भी गिरती दिखा सकते थे... लेकिन हकीकत यही है कि कल कोई पानी नहीं होगा...)
सहेज लीजिए इन तस्वीरों को
ReplyDeleteकल
यही अहसास की सीलन
लिए
सहारा होंगी।
मार्मिक सत्य को कहती गहन रचना ।
बहुत आभार आपका संगीता जी।
Deleteबेपानी हो रही है धरा और बेपानी हो रहे हैं मन भी, छूट रहे हैं सारे लिहाज सँवारने के, समेटने के
ReplyDeleteआभार अनीता जी...
Delete"...
ReplyDeleteमैं सूखते समाज में
आहत परिंदों पर
मातम नहीं चाहता
पानी चाहता हूँ
उनके लिए
..."
बिल्कुल सही। हमे मातम नहीं समाधान चाहिए।
सराहनीय रचना।
आभार प्रकाश जी...।
Deleteहकीकत बयां करती सराहनीय रचना ।
ReplyDeleteआभार जिज्ञासा जी...
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