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गुरुवार, 26 जून 2025

कोई चेहरा न होना ही बेहतर है

कहीं कोई चेहरा

उदास है

बैठा है किसी भीड़ की नाभी में

किसी खोह में।

कहीं कोई चेहरा

सुर्ख है

अपने ही शरीर में 

हजार ज़ख्मों के बीच उलझा सा।

कहीं कोई चेहरा

दमक रहा है

असंख्य शरीरों पर 

रेंगता हुआ सच उस चेहरे के पीछे है।

कहीं कोई चेहरा 

बेदाग है

किसी कोठरी में मुंह डाले

खोज रहा है 

बेदाग बने रहने वाली कोई खिड़की।

कहीं कोई चेहरा है ही नहीं

केवल 

आवाज है, उसके भाव है

पथराए हुए 

शिलाओं पर नुकीले पत्थरों से उकेरे गए

समय की तरह बेबाक लेकिन अदृश्य।

और कितने चेहरे चाहिए

हर चेहरा 

अपनी किताब साथ लाएगा 

और 

असंख्य

सच जो रेंगते भी है समय की पीठ पर 

बरसों तक। 

सोचिएगा

कोई चेहरा न होना ही बेहतर है

चेहरे पाकर

हम उसी के होकर रह जाते हैं।


8 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका आदरणीया प्रियंका जी।

      हटाएं
  2. जन्म से पहले कोई चेहरा नहीं था और न ही मृत्यु के बाद ही रहेगा, बीच में ही मिलता है कुछ देर के लिए और लोग उस पर ही दांव लगा देते हैं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत सुंदर, सार्थक आकलन किया आदरणीया अनिता जी

      हटाएं
  3. बहुत बहुत आभारी हूं आपका आदरणीया

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत गहरी एवं सार्थक अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  5. खूब पडताल की गई चेहरों के विज्ञान पर. एक गंभीर रचना के लिए बधाई प्रिय संदीप ji 🙏

    जवाब देंहटाएं

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