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मंगलवार, 3 अगस्त 2021

हम साक्षी नहीं होना चाहते

 तुम्हारा साथ

पौधों के नेह जैसा ही है

गहरे से अंकुरण 

गहरे से अपनेपन

और 

गहरे से भरोसे की चाह

और

उस पर 

हरीतिमा बिखेरता हुआ। 

हम

और तुम

साक्षी हैं

धरा पर बीज के

बीज पर अंकुरण के

अंकुरण पर पौधा हो जाने के कठिन संघर्ष के 

पौधे के वृक्ष बनने के कठिन तप के

उस पर गिरी बूंदों के

ठंड में ठिठरुती उसकी पत्तियों की आह के

गर्मी में झुलसते 

उसके सख्त बदन के पत्थर हो जाने के

और

उस वृक्ष पर 

घौंसले बनाकर बसने वाले

चुबबुले परिंदों के

उनकी उम्मीदों के

उस छांव में 

सुस्ताने वाले 

राहगीरों के

उनके थके पैरों की बिवाई के

और

छांव पाकर आई 

गहरी नींद के।

हम साक्षी नहीं होना चाहते

उस वृक्ष के कटने के

उन घौंसलों के उजड़ने के

उन परिंदों के हमेशा के लिए लौट जाने के

छांव को धूप के निगल जाने के

फटी बिवाई से रिसते रक्त के

हम साक्षी नहीं होना चाहते

बंजर धरा के

प्यासे कंठों के 

सूखते जलाशयों के 

बारी-बारी मरते पक्षियों के

पानी पर लड़ते इंसानों के

और

हम साक्षी नहीं होना चाहते

ऐसी प्रकृति के

जिसमें

केवल 

स्वार्थ के पथरीले जंगल हों

जहां

का कोई रास्ता

जीवन की ओर न जाता हो।





22 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जी...यशोदा जी...। आभारी हूँ आपका...।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत गहन भाव...
    सुविधाजीवी मनुष्य
    अपनी सहूलियत के हिसाब से
    प्रकृति के उपहारों का
    उपभोग करता है किंतु
    प्रकृति की पीड़ा में
    तटस्थ हो जाता है।
    अति सराहनीय सृजन सर।

    प्रणाम
    सादर

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  4. जी बहुत आभार आपका श्वेता जी...। यह दर्द है जो मुझे सोने नहीं देता...।

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  5. थोड़ी सी सहृदयता में हमारी कितनी परेशानियों का हल है| ह्रदय झकझोरती सी रचना | प्रभावशाली लेखन |

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  6. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 05 अगस्त 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  7. वाह संदीप जी | कितनी गहराई से प्रकृति और मूक प्राणियों के दर्द को महसूस किया गया है रचना में | मानव को अपने दर्द प्रिय हैं | सच कहा प्रिय श्वेता ने प्रकृति की पीड़ा में मानव का तटस्थ हो जाना ही प्रकृति के विनाश का द्योतक है |हम साक्षी हो जाएँ अबोले प्राणियों और मूक धरा की पीड़ा के तो धरती फिर से हरा भरा जंगल बन मुस्कुराने लगेगी |

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    1. हमेशा की तरह प्रेरक प्रतिक्रिया के लिए साधुवाद रेणु जी...। हमें प्रकृति से अपने रिश्ते पर मौलिक होना ही होगा...।

      हटाएं
  8. प्रायः आपकी रचनाओं में मेरे अपने ही हृदय की अनुगूंज होती है शर्मा जी। यह कविता भी अपवाद नहीं है। अभिनंदन आपका।

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    उत्तर
    1. अहा...यह मेरे लिए गर्व की बात है जितेन्द्र जी...। मैं आपकी समीक्षा का कायल हूँ...। साधुवाद

      हटाएं
  9. आभार आपका अनीता जी...। साधुवाद

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  10. हम साक्षी नहीं होना चाहते
    ऐसी प्रकृति के
    जिसमें
    केवल
    स्वार्थ के पथरीले जंगल हों

    यथार्थपरक उत्कृष्ट रचना...🌹🙏🌹

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  11. हमें कभी भी इस तरह से साक्षी नहीं होना पड़े उसके लिए सजगतापूर्वक आज ही प्रयासरत होना पड़ेगा । अति सुन्दर सृजन ।

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  12. बहुत सटीक यथार्थ बयान किया है संदीप जी आपने।
    सच कहा आपने हम कबूतर की तरह आँख बंद कर लेते हैं ऐसे जैसे आँख बंद खतरा टला।
    सार्थक सृजन।

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  13. बहुत बहुत सुन्दर मार्मिक | शुभ कामनाएं |

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अभिव्यक्ति

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