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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

लौट आओ


गांव के घर

और 

महानगर के मकानों के बीच

खो गया है आदमी।

गांव को

लील गई

महानगर की चकाचौंध

और

महानगर भीड़ के वजन से

बैठ गए 

उकडूं।

हांफ रहे हैं महानगर

और 

एकांकी से सदमे में हैं गांव। 

गांवों के गोबर लिपे 

ओटलों पर 

बुजुर्ग 

चिंतित हैं

जवान बेटों के समय से पहले 

बुढ़या जाने पर। 

तनकर चलने वाला पिता

झुकी कमर वाले पुत्र को देख

अचंभित है

क्या महानगर कोई

उम्र बढ़ाने की मशीन है? 

थके बेटे को खाट पर बैठाए

पिता देते हैं

कांपते हाथों पानी

और 

खरखरी वाली आवाज़ में सीख

गांव लौट आओ

तुम बहुत थक गए हो।

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

पदचिह्न मिट रहे हैं

एक दिन
गांव की शहर हो जlने की लालसा
मिटा देगी 
लौटने की राह।
खेत 
अब रौंदे जा रहे हैं
मकानों के पैरों तले।
गांव 
नगर होकर 
सिर खुजा रहे हैं। 
गांव की पीठ पर 
विकसित होने का दिवास्वप्न
उकेरा गया
गहरे नाखूनों से। 
नगर 
महानगर की चमक में 
बावले होकर 
भाग रहे हैं। 
नगर के पीछे 
शर्ट को पकड़े दौड़ रहे हैं 
गांव। 
नगर रोज 
धक्के खाता 
महानगर आता है
देर रात थका मांदा लौट जाता है
देर रात सो जाता है
सीमेंट जैसे सपने ओढ़कर। 
महानगर आ फंसा है 
अपनी जकड़ में
दम फूल रहा है
हांफ रहा है
रोज बहाने खोजकर
गांव की हरियाली 
किताबों में महसूस करता है। 
महानगर 
गांव होना चाहता है
गांव नगर
और 
नगर होना चाहते हैं महानगर। 
एक दिन खेत खत्म हो जाएंगे
तब 
गांव भी खत्म होंगे।
महानगर तब खाली होकर 
विकास की एतिहासिक भूल 
कहलाएंगे। 
तब 
नगर 
की पीठ पर फिसलते
लटकते 
खिसियाहट भरे 
गांव होंगे। 
हम बैलगाड़ी से
सीमेंट की सड़कों पर 
होंगे
लौटने को आतुर 
पुरातन युग की ओर। 
तब खबरों में 
केवल मकान होंगे
आदमी नहीं। 
पानी और हवा 
नहीं होगी
विकास होगा खौफनाक और डरावना।


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

नदी का श्वेत पत्र

हर रात 
नदियां कुरेदी जाती हैं
खरोंची जाती हैं
सुबह तक 
वे 
बाज़ार में होती हैं।
दोपहर तक 
ठिकानों पर
और 
शाम तक 
मकानों की दीवारों में चिन दी जाती हैं।
ऐसे रोज नदियां
घिस रहीं हैं
अंदर से।
उनकी देह रज से बने मकानों में
सदियों से एक सवाल 
सुलझ नहीं पाया 
कि 
आखिर नदियां खोखली क्यों हो रही हैं? 
अनुत्तरित सवाल 
अखबारों में पढ़कर 
गाड़ीवान 
अगली सुबह फिर 
नदी की छाती पर सवार हो जाता है
उसे कुरेदने...। 
हम बहुत चिंता करते हैं
कि 
वाकई भविष्य खतरे में है
नदियां नहीं बचेंगी 
तो 
कैसे बचेगा भविष्य। 
खुरची नदी 
अपने आप को सौंप देती है
उन लौह नखों के वाहक को
अंदर ही अंदर रोती है
चीखती है
और 
गहरे तक 
समा जाती है अपने ही अंतस में।

अभिव्यक्ति

 प्रेम  वहां नहीं होता जहां दो शरीर होते हैं। प्रेम वहां होता है जब शरीर मन के साथ होते हैं। प्रेम का अंकुरण मन की धरती पर होता है।  शरीर  क...